Pehachaan Magazine https://pehachaan.com International Hindi Quarterly Magazine Fri, 26 Apr 2024 07:36:32 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.2 https://pehachaan.com/wp-content/uploads/2022/12/cropped-cropped-pehachaan-15-1-32x32.png Pehachaan Magazine https://pehachaan.com 32 32 शार्ट फिल्म: यादों में गणगौर (Reminiscence of Gangaur) https://pehachaan.com/%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9f-%e0%a4%ab%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%ae-%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%a6%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%97%e0%a4%a3%e0%a4%97/ https://pehachaan.com/%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9f-%e0%a4%ab%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%ae-%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%a6%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%97%e0%a4%a3%e0%a4%97/#respond Fri, 26 Apr 2024 07:36:32 +0000 https://pehachaan.com/?p=2863 (29 मिनट/डॉक्यूमेंट्री/हिन्दी, पटकथा, निर्माण व निर्देशन: सुदीप सोहनी, छायांकन: अशोक कुमार मीणा, सम्पादन: वैभव सावंत ध्वनि : उमेश तरकसवार)
भारत परंपराओं, रीति-रिवाजों और त्योहारों का देश है. गांवों ने मिट्टी की ख़ुशबू को बचा कर रखा है और उसे पीढ़ियों तक हस्तांतरित किया है. गणगौर ऐसा ही एक लोक पर्व है जो पश्चिमोत्तर भारत में मनाया जाता है. यह फिल्म मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले के कालमुखी गांव के पारंपरिक गणगौर अनुष्ठान का चित्रण है जहां यह परंपरा 100 वर्षों से भी अधिक समय से चली आ रही है. इस लोक उत्सव का फिल्मांकन एक यात्रा से शुरू होता है जो अंतत: विरासत, परंपराओं, और रीति-रिवाजों को सहेजने के बहाने मासूमियत और कृतज्ञता ज्ञापित करने वाले उत्सव के अनुभव में बदल जाता है. यह फिल्म सच्चे अर्थों में भारतीय लोक संस्कृति के भीतर छुपे मंतव्यों की पड़ताल करती है जो लोगों और समाज में गहरी जड़ें जमाए हुए हैं. यह एक ऐसे लोक पर्व का फिल्मांकन है जो सदियों से परंपरा को पोसता हुआ उसे एक विरासत में परिवर्तित कर देता है और मिट्टी और फसलों के संबंध का उत्सव मनाता है.


गांव देहात की लोक परम्पराएं किस तरह समय के साथ एक सांस्कृतिक यात्रा और इतिहास बन जाती हैं- यह फ़िल्म उसी की यात्रा करती है. इस दौरान बहुत कुछ बदला है. बहुत से लोग इस दुनिया में नहीं हैं. गांव की पिछले 100 सालों की पारंपरिक व्यवस्था का इतिहास इस फ़िल्म में दर्ज है और व्यक्तिगत होते हुए भी यह सामाजिक दायरे को दिखाती है. साल 2015 में खंडवा के पास स्थित ननिहाल कालमुखी में पिछले सौ वर्षों से जारी गणगौर अनुष्ठान के दरमियान इसके फिल्मांकन का ख्याल मुझे आया और फिर अगले दो वर्षों तक गणगौर पर्व के समय हमने इसका फिल्मांकन किया जिसमें पारंपरिक अनुष्ठान के अतिरिक्त जमुना देवी उपाध्याय, वसंत निर्गुणे, संजय महाजन, विनय उपाध्याय, आलोचना मांगरोले समेत ग्रामीण व लोक कलाकारों के साक्षात्कार, गणगौर के गीत और गांव की परंपरा का फिल्मांकन किया गया है. अंग्रेजी में इसे ‘रीमिनिसेंस ऑफ़ गणगौर’ के नाम से दिखाया जाएगा.
29 मिनट की इस फ़िल्म की पटकथा, निर्माण, व निर्देशन व पटकथा सुदीप सोहनी का है जबकि फिल्मांकन अशोक मीणा व सम्पादन वैभव सावंत ने किया है. फ़िल्म में ध्वनि परिकल्पना संगीतकार उमेश तरकसवार ने की है. यह फिल्म इस समय दुनिया भर के अलग-अलग समारोहों में दिखाई जा रही है. मार्च 2024 में फिल्म त्रिनिदाद और टोबेगो के पोर्ट ऑफ स्पेन में 6वें फिल्म एंड फोकलोर फेस्टिवल में दिखाई जा रही है. इसके बाद आगामी 14-19 मई 2024 को फिल्म का प्रदर्शन अमेरिका के ओरेगॉन प्रांत के यूजीन शहर में होने वाले 20वें अंतर्राष्ट्रीय आर्कियोलॉजिकल फेस्टिवल में होगा. इसके पहले बीते अगस्त में 14वें शिकागो साउथ एशियन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, शिकागो (अमेरिका), 7वें चलचित्रम अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह(गुवाहाटी), 9वें शिमला अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह, (शिमला) और 7वें अंतर्राष्ट्रीय लोकगाथा फिल्म समारोह, त्रिस्सूर(केरल) में फिल्म का प्रदर्शन हो चुका है.
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परिचय: सुदीप सोहनी


 भारतीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान, पुणे के छात्र रहे सुदीप सोहनी मध्य भारत में स्वतंत्र सिनेमा (Indie filmmaking) के क्षेत्र में काम करने और विभिन्न रचनात्मक कार्यों से जुड़े कलाकारों को संगठित रूप से जोड़ने की पहल करने वाले युवाओं में जाना-पहचाना नाम हैं. कवि, पटकथा लेखक, निर्देशक, परिकल्पक व सलाहकार के रूप में सुदीप का कार्यक्षेत्र सिनेमा, रंगमंच, साहित्य, व संस्कृतिकर्म तक फैला है. फिल्मों में आने से पहले उन्होंने विभिन्न एजेंसियों के साथ काम करते हुए विज्ञापन में एक कॉपीराइटर के रूप में अपनी यात्रा शुरू की. उनकी पहली लघु फिल्म ‘#itoo(2019)’, डॉक्यूमेंट्री फीचर ‘तनिष्का (2022)’ और डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट ‘रेमिनिसेंस ऑफ गणगौर (2023)’ को भारत, अमेरिका, वेस्टइंडीज, यूरोप और बांग्लादेश सहितविभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सराहना और पहचान मिल रही है. देश के कई शिक्षा संस्थानों में सिनेमा पाठयक्रम निर्माण और सिने कार्यशालाओं में हिस्सेदारी. फ़िल्म हेरिटेज फाउंडेशन, मुंबई द्वारा वर्ष 2018 की प्रतिष्ठित वर्ल्ड फ़िल्म रिस्टोरेशन कार्यशाला, कोलकाता में बतौर पर्यवेक्षक हिस्सेदारी. विश्वरंग अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल, भोपाल 2020 व 2021 के निदेशक तथा स्क्रीनराईटर्स असोसिएशन, मुंबई के गत तीन वर्ष सम्पन्न हुए अवार्ड्स के प्री-जूरी पैनल में नामित. एक कविता संग्रह ‘मंथर होती प्रार्थना (2023)’ और एक मोनोग्राफ ‘साहित्य, सिनेमा और समय (2019)’ प्रकाशित है. नर्मदा भवन ट्रस्ट, इंदौर (म.प्र.) का युवा गौरव सम्मान (2016), सिनेमा पर श्रेष्ठ लेखन के लिए म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘पुनर्नवा सम्मान’ (2018). रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय भोपाल द्वारा जूनियर टैगोर फ़ेलोशिप (2019). सिने समालोचना के लिए प्रथम विष्णु खरे स्मृति सम्मान (2022). विगत वर्षों में कान फ़िल्म समारोह (फ्रांस) तथा भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह (इफ़ी) के लिए बतौर फ्रीलान्सर फ़िल्म क्रिटिक संबद्धता प्राप्त. इन दिनों भोपाल(म.प्र.) में रहते हैं और सुदीप सोहनी फिल्म्स के तहत स्वतंत्र फिल्म निर्माण कर रहे हैं और कई टेलीविज़न चैनल्स के लिए बतौर कॉन्सेप्चुएलाइसर कार्य कर रहे हैं.संपर्क : sudeepsohnifilms@gmail.com 

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सामाजिक और संवैधानिक मूल्यों की समझ बनाती पुस्तक https://pehachaan.com/%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b5%e0%a5%88%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%ae%e0%a5%82%e0%a4%b2/ https://pehachaan.com/%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b5%e0%a5%88%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%ae%e0%a5%82%e0%a4%b2/#respond Fri, 26 Apr 2024 07:33:35 +0000 https://pehachaan.com/?p=2860 पूजा सिंह

सचिन कुमार जैन की पुस्तक ‘सामाजिक और संवैधानिक मूल्य: अंतर्संबंध और अंतर्द्वंद्व’ सरल भाषा में मूल्यों के आपसी संबंध और उनके बीच के द्वंद्व को समझाती है. यह मूल्यों को लेकर समझ बनाने वाली एक जरूरी पुस्तक है.
मानव समाज कुछ मूल्यों से संचालित होता है. हर दौर में समाज कुछ तय मूल्यों पर आधारित रहे हैं. ये मूल्य आम लोगों के सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व का सूत्र रहे हैं. बाद में कई मूल्यों ने ऐसी रुढ़ियों या परंपराओं का रूप ले लिया जिन्होंने समाज पर विपरीत असर डाला. संवैधानिक मूल्यों ने ऐसी विसंगतियों को दूर किया है. सचिन कुमार जैन की पुस्तक ‘सामाजिक और संवैधानिक मूल्य: अंतर्संबंध और अंतर्द्वंद्व’ इन दोनों मूल्यों के जटिल और परस्पर निर्भरता वाले संबंधों को पारदर्शी ढंग से पाठकों के समक्ष रखती है.
पुस्तक के पहले भाग में उन्होंने सामाजिक मानकों और रुढ़ियों को स्पष्ट करते हुए मूल्यों को परिभाषित किया है. वह धर्म सूत्रों के हवाले से तत्कालीन मूल्यों को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं. इसके बाद वह जैन और बौद्ध दर्शनों में उल्लिखित मूल्यों की व्याख्या करते हैं. वह भक्ति आंदोलन के सहारे आगे बढ़ते हुए उन चुनौतियों का जिक्र करते हैं जो समय के साथ सामाजिक व्यवस्था और सामाजिक मूल्यों के समक्ष उपस्थित होने लगी थीं. इनमें जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, जाति विभाजन आदि प्रमुख हैं.
वह धर्म और स्त्री जैसे महत्वपूर्ण विषय को उठाते हुए ‘स्तन कर’ की अमानवीय परंपरा का उल्लेख करते हैं. इसी भाग में वह रुकैय्या बेगम की दास्तान के माध्यम से स्त्री शिक्षा के संघर्ष को भी रेखांकित करते हैं. इस हिस्से में वह अयोथी थास, सावित्री बाई फुले और जोतिबा फुले एवं ताराबाई शिंदे आदि के जीवन संघर्ष के माध्यम से तत्कालीन सुधारवादी प्रयासों के बारे में भी बताते हैं.
दूसरे भाग में लेखक ने भारतीय संविधान, संवैधानिक नैतिकता और व्यवस्था के व्यवहार के साथ संवैधानिक मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है. लेखक के मुताबिक प्रेम, न्याय, बंधुता और स्वतंत्रता जैसे संवैधानिक मूल्य बुनियादी तौर पर सामाजिक मूल्य ही हैं. उन्होंने कई धर्म सूत्रों का विस्तृत विश्लेषण किया है जिनके बारे में माना जाता है कि हमारे सामाजिक मूल्य वहीं से उत्पन्न हुए. वह महोपनिषद के छठवें अध्याय के 71वें श्लोक का उल्लेख करते हैं:
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम.
यानी ‘‘यह मेरा है यह मेरा नहीं है इस तरह का विचार छोटे चित्त के लोग रखते हैं, उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो पूरी पृथ्वी ही परिवार है.’’ यह श्लोक न्याय, समता, बंधुता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों को स्पष्ट करता है.


वह गौतम बुद्ध के हवाले से मैत्री और करुणा जैसे मूल्यों की बात करते हैं. जैन धर्म के प्रतिक्रमण के सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए वह बताते हैं कि यह पीछे लौटकर या अतीत में जाकर अपने व्यवहार पर नजर डालने की बात कहता है. यह कहता है कि यदि कोई हमारे साथ गलत करता है तो हमें पलटकर उसके साथ गलत व्यवहार नहीं करना है. यह भी एक सकारात्मक मूल्य ही तो है.
पुस्तक बताती है कि भक्ति आंदोलन ने ऊंच-नीच, जातिवाद जैसी सामाजिक बुराइयों का भी खुलकर विरोध किया. भक्ति काल ने समानता, प्रेम, सह-अस्तित्व और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे मूल्यों पर जोर दिया. समय के साथ धार्मिक परंपराओं में कई विकृतियां जुड़ गयीं जो शर्मनाक थीं. देवदासी और सती प्रथा, स्तन कर, मानव द्वारा मल निस्तारण आदि ऐसी ही प्रथाएं हैं जिन्हें सामाजिक मान्यता प्राप्त थी.
देवदासी और सती प्रथा या स्तन कर प्रथा जैसी रुढ़िवादी परंपराओं ने महिलाओं को ही प्रभावित किया. इससे मुक्ति की एक मात्र राह स्त्री शिक्षा और जागरूकता की थी और यह बीड़ा उठाया रुकैय्या बेगम, फातिमा शेख, सावित्रीबाई फुले और जोतिबा फुले जैसे सुधारकों ने.
संवैधानिक मूल्यों की सबसे बड़ी खासियत उनका सार्वभौमिक होना है. संविधान की उद्देशिका हमारे संवैधानिक मूल्यों का उद्घोष करती है और कहती है कि हर व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा, उसकी गरिमा का ध्यान रखा जाएगा और बंधुता को बढ़ावा दिया जाएगा. दूसरे भाग में लेखक ने उद्देशिका में दर्ज 12 शब्दों के माध्यम से संवैधानिक मूल्यों को परिभाषित किया है. लेखक ने संवैधानिक मूल्यों और संवैधानिक अधिकारों को अलग-अलग परिभाषित करके सराहनीय काम किया है.
अंतिम अध्याय में लेखक ने संवैधानिक भरोसे को परिभाषित किया है. बीते कुछ समय में देशवासियों के बीच जिस तरह के अविश्वास का माहौल निर्मित हुआ है, उसमें संवैधानिक भरोसे के बारे में विस्तृत अध्ययन समझ बढ़ाने वाला है. यह पुस्तक सामाजिक और संवैधानिक मूल्यों को लेकर सही समझ देने के साथ पाठकों को सजग और सुचिंतित नागरिक बनने में मदद करेगी. सरल-सहज भाषा में लिखी यह पुस्तक हर वर्ग के पाठकों के लिए सहज ही पठनीय है. अलग-अलग कालखंड की उल्लेखनीय घटनाओं का जिक्र पाठकों को पुस्तक के साथ बांधे रखने में सफल है.
(पुस्तक: सामाजिक और संवैधानिक मूल्य अंतर्संबंध और अंतर्द्वंद्व: लेखक: सचिन कुमार जैन, पृष्ठ संख्या: 114, मूल्य: 315 रुपये, प्रकाशक: पी.पी. पब्लिशिंग, भारत, राजेन्द्र नगर, गाजियाबाद 201005) 

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लघुकथा के विविध आयाम -एक ज़रूरी किताब https://pehachaan.com/%e0%a4%b2%e0%a4%98%e0%a5%81%e0%a4%95%e0%a4%a5%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a7-%e0%a4%86%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%ae-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%9c%e0%a4%bc/ https://pehachaan.com/%e0%a4%b2%e0%a4%98%e0%a5%81%e0%a4%95%e0%a4%a5%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a7-%e0%a4%86%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%ae-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%9c%e0%a4%bc/#respond Fri, 26 Apr 2024 07:32:05 +0000 https://pehachaan.com/?p=2857 अंजू खरबंदा

‘सहज पके सो मीठा होय’ जब तक कथ्य सहज रूप से परिपक्व नहीं होगा और शिल्प का अधिकतम परिमार्जन नहीं हुआ होगा, लघुकथा पाठक के हृदय पर विराजेगी कैसे? भेड़ियाधसान प्रवृत्ति से बचने की सलाह देते हुए लेखक रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने अपनी बात स्पष्ट रूप से पाठकों के सामने रखी. विराम चिह्न और वर्तनी अशुद्धि पर उन्होंने कड़ाई से बताया ही नहीं, बल्कि चेताया भी.
लघुकथा के विभिन्न आयामों पर लेखक ने जीवन की सार्थकता के दो अनिवार्य सहयोगी घटकों पर बात की है-1-प्रकृति, 2-मानव. अनायास ही अंसार कंबरी की ये पंक्तियां आंखों के आगे तिर आईं-
“धूप का जंगल नंगे पांव एक बंजारा करता क्या
रेत के दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या!”
विकास के नाम पर हम धरती मां को हम कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं, पर यह नुकसान क्या केवल धरती मां का है, हमारा नहीं? लेखक ने धरती, वायु, समुद्र, नदी सभी के प्रति चिंता का भाव रखते हुए स्पष्ट संकेत दिया, ‘भूमिगत जल के निरंतर घटने और बढ़ते प्रदूषण का कारण एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा समाज है.’
सुकेश साहनी जी की लघुकथा ‘उतार’ में गिरते हुए जलस्तर की बात की गई। यह लघुकथा डायरी शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। अमृततुल्य जल को भी जातियों और अमीर- गरीब में बांट दिया गया है और अफसोस इस बात का है कि जल के साथ मन भी बंट गए हैं, उतार पर केवल जलस्तर ही नहीं, अपितु हृदय की संवेदनाएं भी उतार पर हैं.
लेखक ने सुकेश साहनी की दूसरी लघुकथा ‘विरासत’ के बारे में लिखा है कि 2060 की जो परिकल्पना इस लघुकथा में की गई है, वह लोमहर्षक है. दो बूंद जल को तरसते लोग मिलीलीटर में पानी की अहमियत समझेंगे और बूंद-बूंद को तरसेंगे.


लेखक ने पर्यावरण पर बात करते हुए कहा कि यह विषय भले ही हमारे पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बन गया है, पर व्यावहारिक रूप में जंगल दिन-प्रतिदिन घट रहे हैं. सिर्फ भारत ही नहीं, अपितु अनेक देश जल की विभीषिका से जूझ रहे हैं. समुचित उपाय के अभाव में वर्षा ऋतु के कारण या तो बाढ़ आ जाती है या सूखा पड़ जाता है. हर भगवान चावला की लघुकथा ‘खून और पानी’ का हवाला देते हुए लेखक ने इस विषय पर गहन चिंता जताई है. अरुण अभिषेक की लघुकथा ‘आत्मघात’ पर बात करते हुए लेखक ने इसे विडंबना बताया कि जिसकी छांव में बैठकर सुस्ताते हैं, उसी से ऊर्जा लेकर उसी पर टूट पड़ते हैं. कम शब्दों में रची गई यह लघुकथा चेताती है कि जिस तरह से हम पेड़ों की अंधाधुंध कटाई कर रहे हैं, बिना यह सोचे कि हम आत्मघाती बन अपना ही नुकसान कर रहे हैं, अब न संभले, तो फिर कभी नहीं संभलेंगे.
आनंद हर्षुल की लघुकथा ‘बच्चों की आंखें’ का हवाला देते हुए लेखक ने आज के बच्चों का मोबाइल फोन के प्रति मोह पर करारा तंज कसा है. बगीचे में बैठे बच्चे मोबाइल में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें पेड़-पौधे, तितलियां, चिड़िया कुछ दिखाई नहीं दे रहा. फूल दुखी है कि उनके लिए नहीं है बच्चों की आंखें. संसाधन हमारी जरूरत की आपूर्ति करने के बजाय बच्चों का बचपन ही डकार जाए, तो ऐसे संसाधन हमारे किस काम के?
कमल कपूर की लघुकथा ‘सपनों के गुलमोहर’ उनके वृक्षों के प्रति प्रेम को दर्शाती लघुकथा है. इसमें लेखिका ने अपने गुलमोहर प्रेम को लघुकथा के माध्यम से जीवंत किया है. यहां लेखक ने बहुत सुंदर बात कही – ‘प्रकृति का संरक्षण तभी संभव है जब मानव इसे जीवन का अनिवार्य और अपरिहार्य अंग मानकर अनुपालन करें.’
डॉ. कविता भट्ट की लघुकथा ‘कुलच्छन’ के बारे में लेखक ने कड़े शब्दों में पाखंड का विरोध दर्ज करते हुए कहा है कि आचार्य स्वयं तो पाखंडपूर्ण व ऐशोआराम का जीवन जीते हैं, दूसरी ओर भोली-भाली जनता को मूर्ख बनाते हैं. लेखक ने मनुस्मृति के एक श्लोक का सुंदर उदाहरण देते हुए समझाया है कि जल से शरीर के अंग शुद्ध होते हैं, सत्य का आचरण करने से मन शुद्ध होता है, विद्या और तप से प्राणी की आत्मा तथा बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है, परंतु कुछ लोग केवल शारीरिक शुद्धि को ही स्वर्ग प्राप्ति तथा पुण्य प्राप्ति का साधन समझ बैठते हैं.
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की लघुकथा ‘फटी चुन्नी’ पर बात रखनी बेहद जरूरी है. बुआ के घर आई सीमा के कौमार्य को खंडित करने वाला कोई और नहीं बल्कि फूफा ही है. बुआ के लाख पूछने पर भी वह अपनी उदासी का कारण नहीं बता पाई, ताकि बुआ का घर न टूटे. महिलाओं की सोचनीय स्थिति को यहां दर्शाया गया है.
महेश शर्मा  की लघुकथा ‘लव जेहाद’ उल्लेखनीय है.  मातृत्व का आत्मीय स्पर्श मां और बच्चे दोनों के लिए आत्मीय शक्ति है. इस विषय पर रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘खूबसूरत’ की बात करना लाज़िमी है. स्त्री चाहे विश्व सुंदरी हो या कोई मॉडल, घर को घर बनाकर रखने वाली स्त्री ही सभी की चहेती कहलाती है. विजय की पत्नी को देख उसका दोस्त सोचता है कि वही विजय है जिस पर कॉलेज की लड़कियां मरती थीं. पर जब विजय से अपनी पत्नी का परिचय करवाते हुए गर्व से कहा ‘यह है मेरी पत्नी सविता’ तब विजय के दोस्त को एहसास हुआ कि यह दुनिया की सबसे खूबसूरत महिला है.
जल, नदी, पेड़-पौधे, समुद्र, पर्यावरण, आडंबर, धर्म, ममता सभी विषयों को इस पुस्तक में समेटा गया है. लेखक ने मोती चुनकर इस पुस्तक रूपी माला में पिरोए है जिससे यह पुस्तक अनमोल बन पड़ी है.
(लघुकथा के विविध आयाम (कथ्य एवं शिल्प): रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, पृष्ठः165, मूल्यः 310, प्रथम संस्करण 2024, प्रकाशकः प्रवासी प्रेस पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड – भारत, राजेन्द्र नगर, गाजियाबाद 201005)

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प्रेम में होना https://pehachaan.com/%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%ae-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a4%be/ https://pehachaan.com/%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%ae-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a4%be/#respond Fri, 26 Apr 2024 07:30:11 +0000 https://pehachaan.com/?p=2854 भारती पाठक

ये कहना अतिशयोक्ति न होगी कि प्रेम ही है जिसने संपूर्ण प्राणी जगत को भावनाओं के सूत्र में पिरोकर दुनिया को रहने लायक बना रखा है. देश, काल, समाज, समय और उम्र से परे प्रेम के अनगिनत रूपों में से एक, प्रेमी प्रेमिका के रूप में अपने प्रिय को साकार देखना या उसकी उपस्थिति और अपने प्रति प्रेम को अनुभूत करना निःसंदेह अद्भुत होता है. प्रेम करना और प्रेम का पात्र होना दोनों ही स्थितियों में प्रेम कविताएं या प्रेम गीत प्रेमी हृदयों के संबल होते हैं जिनमें डूबा उनका मन सृष्टि में उपस्थित कण-कण में अपने प्रेम को प्रतिबिंबित करता बड़े से बड़े संताप भी हंसकर सह लेता है. प्रेम की सहज उष्णता से भरी ऐसी ही कविताओं का संग्रह है “प्रेम में होना” जो हिमाचल के लोकप्रिय कवि राजीव कुमार ‘त्रिगर्ती’ का तीसरा काव्य संग्रह है. शीर्षक पढ़ते ही मन प्रेम की स्मृतियों में कहीं खोने सा लगता है. संग्रह की कविताएं प्रेमाभिव्यक्ति में कुछ इस तरह पगी हुई हैं कि अपने शब्दों में अलंकारों, रूपकों और छंदों के किसी विशेष साहित्यिक प्रयोग के बिना भी बड़े ही सरल शब्दों में मन को प्रेम की सहज काव्यानुभूति से सराबोर कर जाती हैं. कवि के ही शब्दों में कहें तो-
‘प्रेम वह वृष्टि है
जो भिगोकर भी घटने नहीं देती
दिलों से गुनगुना ताप.’
या
‘तुम प्यार में हो
मैं भी हूं प्यार में
यह वैसा ही है
जैसे दुनिया का
सबसे बेशकीमती फूल
हमारी हथेलियों में खिला हो.’


सच ही है कि प्रेम में मिलन हो या विरह सभी रूपों में यह हृदय में अपनी उपस्थिति से मनुष्य को पोषित करता है सो यहां भी जनपक्षधर कवि के रूप में राजीव की कविताओं का मूल भाव प्रेम ही है. अपनी कविताओं में कवि का आत्मिक प्रेम में होना तो दिखता है वहीं कविताओं में कहीं-कहीं अकेलापन और एकालाप भी है जो सभी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से मुक्त बस प्रेममय है. किंतु प्रेम की इसी वेदना में पूर्णता भी झलकती है. साथ ही साथ कवि उन कारकों पर भी चिंता व्यक्त करते और अपने विचार रखते हैं जिनसे प्रेम कभी लड़खड़ाता है, घटता या उसका मूल भाव प्रभावित होता है हालांकि इन सभी चिंताओं में कहीं न कहीं त्याग, समर्पण और प्रेम में होना ही महत्वपूर्ण दिखता है न कि प्रेम की आकांक्षा करना. वैसे भी प्रेम समस्त संभावनाओं से अलग अपनी ही दुनिया में विचरण करता है जिसके लिए कवि लिखते हैं कि-
‘वहां भी प्रेम ही है प्रसारित
जहां उसके होने की
शेष नहीं दिखती कोई भी संभावना’
संग्रह में छोटी बड़ी कुल 81 कविताएं हैं जो प्रेम का एक जादुई संसार रचती हैं जिसमें प्रकृति में व्याप्त विभिन्न घटकों का कवि ने प्रेम के प्रतीकों के रूप में सुंदर प्रयोग किया. संग्रह में प्रेम कविताएं, प्रेम में होना, जब से बंधी है आस, कविता से भेंट, हमारे उच्छ्वास, और चाहिए भी क्या, प्यार बस प्यार तथा कवि चाहता है आदि कविताएं विशेष प्रभावित करती हैं. कविताओं की संवेदना के संदर्भ में कवि का प्रेमी हृदय होना महत्वपूर्ण है, वहीं यह प्रेम तब और अधिक उद्दीप्त और मोहक हो उठता है जब उसे पहाड़ों, झरनों, नदियों यानी प्रकृति का सुंदर सानिध्य मिलता है. तब कवि हृदय के सहज उद्गार उन्हें प्रेम के साक्ष्य के रूप में परिवर्तित कर कविताओं में पिरो देते हैं. ठीक यही भाव इस संग्रह की कविताओं में दिखता है जब कविताएं प्रेम पत्र सरीखी पृष्ठ दर पृष्ठ पाठकों को सम्मोहित करती हुई उनके अपने भोगे हुए प्रेम का संस्मरण कराती चलती हैं.
राजीव पहाड़ों के सानिध्य में रहने वाले कवि हैं सो उनकी कविताओं में प्रेमी प्रेमिकाओं के बीच सहज ही प्रयुक्त  होने वाले स्थानीय शब्द आकर्षित करते हैं. शब्दों से परे प्रेम उन्मुक्त है सो कविताएं एक प्रेमी के रूप में कवि की अपने प्रेम के प्रति स्वीकारोक्ति भले दिखाती हों किंतु उन्हें पढ़ते हुए प्रत्येक हृदय उनसे कुछ ऐसा जुड़ जाता है कि एक मधुर स्पंदन महसूसने लगता है. अतः इन कविताओं को पढ़ने के दौरान पाठकों के नेत्र कभी सजल हो उठते हैं तो कभी उनके होंठों पर सलोना सा हास्य उभर आता है. कविताएं कुछ इस तरह अपने आप में समेट लेती हैं कि विगत या वर्तमान प्रेम स्मृतियां कभी गुदगुदाती हैं तो कभी मौन कर देती हैं. यह कला संभवतः इन प्रेम कविताओं में है जो मौन में भी मुखर हो उठती हैं और शोर को संगीत में बदल देती हैं. कुल मिलाकर कविता संग्रह प्रेमी हृदयों के बीच निश्चित रूप से सराही जाएगी और वे इससे जुड़ाव महसूस करेंगे.
 (प्रेम में होना -कविता संग्रह, राजीव कुमार “त्रिगर्ति”,  प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, इंडिया , राजेन्द्र नगर, गाजियाबाद. पृष्ठ 110, रु .205, ISBN :  978-81-969712-0-5)

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पहेलियां https://pehachaan.com/%e0%a4%aa%e0%a4%b9%e0%a5%87%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%82/ https://pehachaan.com/%e0%a4%aa%e0%a4%b9%e0%a5%87%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%82/#respond Fri, 26 Apr 2024 07:27:31 +0000 https://pehachaan.com/?p=2851
डॉ. कमलेन्द्र कुमार

1- लोहे का मैं पात्र निराला, मुझ पर रख लो रोटी गोल.
    रंग मेरा है काला-काला, बूझो राधा, रवि, काजोल.

2- तीन अक्षर मेरे नाम में आते रामू भैया,
    मध्य हटे तो ‘चिटा’ बनूं मैं, रखे हाथ में मैया.

3- गोल-गोल सी रोटी को मैं, मन से खूब नचाता,
    मम्मी, चाची, दादी को मैं, सदा बहुत ही भाता.

4- कभी इधर से कभी उधर से, मम्मी घूंसा मारे.
    दो अक्षर का नाम हमारा, बोलो मोहन प्यारे?

5-प्रथम हटे तो ‘करी’ बनूं मैं, मध्य हटे तो ‘टोरी’,
   ध्यान लगाकर बूझो प्यारे, चंदन, राज, किशोरी.

6- मध्य हटे तो ‘करी’ बनूं मैं, प्रथम हटे तो ‘टोरी’,
    दही साग मुझमें रख खाओ, बोलो राज, चकोरी

7- तीन अक्षर का नाम हमारा, सुन लो रानी, सुन लो भैया,
    प्रथम हटे तो ‘लास’ बनूं मैं, बूझो रानी किशन कन्हैया.

8- पुआ बाजरे मीठे-मीठे, रख मुझमें रोज बनाओ,
    गर्म पकौड़े, गर्म मंगौड़े, तुम ले चटखारे खाओ.

9- रोज पकाता, रोज खिलाता, चावल, सब्जी, दाल,
   सीटी बजा-बजा कर बच्चो, करता खूब धमाल.

 10- खीर कचौड़ी, पूड़ी सब्जी, रख लो रोली लाली,
   दो अक्षर का नाम हमारा, कहते मुझको ___.

 11- छन्न-छन्न कर खूब नचाती, पूड़ी-पुआ-पकौड़ी,
  और नचाती दही बड़े को, नाचे खूब कचौड़ी.

12 अगर हटा दो पहला अक्षर, ‘तीली’ मैं बन जाऊं.
  तीन अक्षर का नाम हमारा, बोलो क्या कहलाऊं?
 ————————–
(उत्तर 1: तवा, 2: चिमटा, 3: बेलन, 4: आटा, 5: टोकरी, 6: कटोरी, 7: गिलास, 8: कड़ाही 9: कुकर, 10: थाली, 11: करछुल, 12: पतीली)

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बुंदेली के महाकवि ईसुरी को कैसे पढ़ें https://pehachaan.com/%e0%a4%ac%e0%a5%81%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%95%e0%a4%b5%e0%a4%bf-%e0%a4%88%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95/ https://pehachaan.com/%e0%a4%ac%e0%a5%81%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%95%e0%a4%b5%e0%a4%bf-%e0%a4%88%e0%a4%b8%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95/#respond Fri, 26 Apr 2024 07:22:08 +0000 https://pehachaan.com/?p=2847
डॉ. के. बी. एल. पाण्डेय

बुंदेली के महाकवि ईसुरी को किस तरह पढ़ा जाए? उन्हें ही क्यों, उस समय के विभिन्न अंचलों के अपनी भाषा में लिखने वाले अनेक विशिष्ट कवियों के प्रति भी यह प्रश्न किया जा सकता है. उन्हें अपनी भाषा या बोली में अपने परिवेश की जीवनानुभूतियों को लोक कविता कहकर सीमित कर दिया जाए या जीवन के एक बड़े भूखंड के स्पंदनों, संवेदनों और अनुभवों के संप्रेषण की व्यापक कविता का कवि कहा जाए?
हम प्रायः ईसुरी को लोक कवि की दृष्टि से देख कर उनके प्रति अन्याय ही करते हैं. हम प्रायः ‘ईसुरी की फागें’ कहकर उनकी रचनाएं एक लोक विधा तक सीमित कर देते हैं, भले ही उनकी उत्कृष्ट रचनाशीलता की प्रशंसा करते हैं. फागें तो वे हैं ही और उन्हें फागें कहना गलत नहीं है परंतु जब हम उनका विमर्श साहित्यालोचन के मानकों पर करते हैं तो उन्हें कविता कहना अधिक प्रासंगिक हो सकता है. हम ‘ईसुरी का काव्य’ कहकर जब उनका समालोचन करें तो हम उन्हें व्यापकता से जोड़ने के विचार से प्रेरित होंगे. क्या फागें कविता नहीं होतीं और क्या फागों को सीमित उपलक्ष्य और सीमित समाज के स्तर से उठाकर उन्हें श्रेष्ठ काव्य के रूप में विवेचित नहीं किया जा सकता? ईसुरी तो इसके अनन्य उदाहरण हैं.
बुंदेली के महाकवि ईसुरी अपनी अनुभूति और भाषिक सर्जना में कितने मौलिक और विशद हैं कि भाषा की क्षेत्रीयता के बावजूद उनकी कविता के आस्वाद का धरातल व्यापक है. उपलक्ष्यपरकता और परिवेश की घटनाओं का वर्णन ईसुरी में भी है पर उनकी अधिकतर रचना व्यापकता का प्रभाव रचती स्वतंत्र कविता है. ईसुरी सहज अनुभूति और अकृत्रिम अभिव्यक्ति के कवि हैं. उनमें शास्त्र के नाम पर रूढ़ होती सभ्यता की दिखावट और बनावट नहीं है. उनके राग, विराग में औपचारिकता, गोपन या दमन नहीं है, उनमें कोई ग्रंथि नहीं है.


इसे समझने के लिए हमें उस समाज की मानसिकता को देखना होगा ईसुरी जिसके नागरिक हैं. श्रृंगार या काम के संदर्भ में वहां नैतिक सामाजिक वर्जनाए हैं पर उनमें दुहरापन नहीं है. वहां अगर भाभी से देवर का मजाक का रिश्ता है तो उसे सामाजिक मान्यता प्राप्त है. विवाह में समूह के रूप में अगर स्त्रियां यौनांगों का नाम लेती हुई वर पक्ष से परिहास करती हैं तो वह उनका सामूहिक उल्लास है. वहां कपड़े उतार कर नग्नता को बुरा कहने का व्यावसायिक रिवाज नहीं है. ईसुरी की अकृत्रिमता के संबंध में रामविलास शर्मा ने लिखा है- ‘वास्तव में ईसुरी की रचनाएं इस दोहरी नैतिकता के प्रति एक विद्रोह हैं. उन्हें जीवन से, जीवन के आनंद से, यौवन, उल्लास, इंद्रिय बोध के संसार से इतना प्रेम है कि वे बार-बार सामाजिक निषेध की दीवार से टकराते हैं.’
हम ईसुरी को अपने समय के प्रतिनिधि काव्य में घटित होने के आलोक में देखें. उस समय की प्रतिनिधि कविता का स्वभाव कैसा है? उस संवेदना से ईसुरी की कविता का कहीं कोई जुड़ाव हो रहा है या नहीं? अगर नहीं हो रहा है तो उसका कारण क्या है? यदि हम प्रतिनिधि कविता के साथ इस तरह के क्षेत्रों में लिखी जाती कविता को भी नहीं देखेंगे तो हम कविता या साहित्य को दो स्तरों पर पढ़ते रहेंगे. प्रतिनिधि या परिनिष्ठित काव्य और लोक काव्य साहित्य जैसा कि आजकल हो रहा है. यह भी तो देखा जाना चाहिए कि अगर अभिव्यक्ति की भाषा से परे उसके कथ्य पर ध्यान दें तो वह कहां तक अपने समय से जुड़ा है भले ही वह कुछ पीछे है,उसमें किसी भी रूप में कोई बदलाव है.
ईसुरी का समय सन् 1841 से 1909 तक है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से यह संक्रमण काल है. आचार्य शुक्ल ने रीतिकाल का अंत 1850 ईसवी में माना है. इस समय तक रीति काल का उत्तरार्द्ध ही नहीं अंत चल रहा था. कुछ कवि रीति परंपरा में अभी भी लिख रहे थे पर प्रमुख रीति कवियों के लेखन की लगभग इति हो गई थी. पर एक विचित्र स्थिति देखी जा रही थी कि एक ओर कविता का नया स्वरूप उभर रहा था, दूसरी तरफ उसी समय सैकड़ों कवि परंपरा से जुड़े थे. वह रीतिकाल को विषय के आधार पर ही नहीं छंद और भाषा के आधार पर भी जीवित रखे थे. यह प्रवृत्ति चौथे-पांचवें दशक तक भी मिलती है. यह विचित्र बात है कि नयी प्रवृत्ति और भाषा की दृष्टि से भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी का समय उल्लेखनीय है पर भारतेंदु ने भी कवित्त लिखे हैं. भाषा में भी नएपन की सत्ता उभर रही है पर ब्रज का चलन अब भी मिलता है.
भारतेंदु युग के पहले ही सामाजिक बदलाव की भूमिका लिखी जाने लगी थी, जिसे पुनर्जागरण प्रबोधन या नवजागरण का समय कहा गया. तर्क और मानवता के इस समय में सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों का प्रतिरोध विभिन्न आंदोलनों के द्वारा होने लगा था. बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा, बेमेल विवाह के विरोध में प्रबोधन या नवजागरण चल रहा था. शिक्षा,अस्पर्श्यता, जातिवाद, स्त्री शिक्षा और स्त्री जागरण के पक्ष में नया सोच का क्षेत्र गढ़ा जा रहा था. यही परिवर्तन कामी सोच ‘भारत दुर्दशा’ और ‘अंधेर नगरी’ लिखने का साहस जगा रहा था. एक लंबी सुप्तावस्था के बाद जागकर चीजों को पहचानने में समय लगता है. साहित्य में भी यह प्रभाव धीरे-धीरे आ रहा था. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति भी विरोध की सांसें निकलने लगी थी लेकिन फिर वही बात कि अभी संक्रमण प्रारंभ ही हुआ था. परिनिष्ठित साहित्य के अलावा आंचलिक लेखन की खोज और उसका संकलन चलने लगा था. इससे बोलियों के आंचलिक साहित्य का विपुल भंडार साहित्य के रूप में पढ़े जाने का विषय बनने लगा, हालांकि अंग्रेजी के FOLK फोक  के अनुवाद के रूप में इसे ग्रामीण चेतना के साहित्य के रूप में देखा गया.
साहित्य दो स्तरों पर पढ़ा जाने लगा- परिनिष्ठित और लोक. कभी-कभी लोक की शैली और विधा को परिनिष्ठित साहित्य अपनी रुचि परिवर्तन के लिए प्रयुक्त कर लेता था पर इससे एक बड़ा संवाद होने से रह गया. दोनों स्तरों के साहित्यकार अपनी तरह रचना कर रहे थे. अगर यह कहा जाए कि स्थानगत परिवेश अपने सभी रचनाकारों को समान रूप से प्रभावित करता है तो यह आश्चर्य की बात होगी कि जब एक ही परिसर  में बैठे  मैथिलीशरण गुप्त हरिगीतिका छंद में भारत-भारती लिख रहे थे और ‘रंग में भंग’ की रचना कर रहे थे तब  झांसी में नाथूराम माहौर और जिले के अन्य भागों के बुंदेलखंड के मऊरानीपुर,  छतरपुर आदि के प्रतिभाशाली कवि फाग, ख्याल,सैर और पारंपरिक विषयों पर कवित्त शैली में लगे थे. हालांकि रीतिकाल का प्रभाव ऐसा था कि स्वयं गुप्तजी ने भी शुरू में रसिकेश नाम से कविता शैली में कविता लिखी है. साकेत और यशोधरा में कुछ कवित्त हैं भी.
मेरा मंतव्य यह नहीं है कि बोलियों में और अधिकतर पारंपरिक काव्य विषयों पर लिखने वाले कवियों को प्रसाद,पंत, निराला, महादेवी,अज्ञेय  आदि के साथ रखकर पढ़ा जाए क्योंकि उनकी काव्य चेतना वह नहीं है लेकिन उन्हें अपनी रचनाधर्मिता की गुणवत्ता के आधार पर आलोचना के व्यापक मानकों पर परखा जाए.  उन्हें केवल गांव का कवि न समझा जाए. यदि बात वैचारिकता की है तो उसमें भी भक्ति, नीति, जीवन को संचालित करने वाली प्रेरणाओं का वर्णन है. उनके भी अपने जीवन निष्कर्ष हैं. ईसुरी के लिखे को भी कविता कहिए, केवल फागें नहीं.
मेरा आशय यह नहीं है कि बोलियों में बिना किसी सार्थकता के केवल पुराने विषयों पर तुकें जोड़ने वाले लोगों को भी कवि या लोक कवि का दर्जा दिया जाये. आजकल हो यही रहा है. लोक संस्कृति, लोक साहित्य के नाम पर वैसे ही लिखा जा रहा है जैसे किसी संग्रहालय में रखी वस्तुओं को जो भी देखने आता है वह अपनी तरह एक सा वर्णन करता रहता है. क्या प्रेमचंद के हल्कू, घीसा, माधव, अलगू चौधरी, जुम्मन शेख, होरी, धनिया आदि पात्र इसी लोक के हैं. जीवन के संघर्ष, अभाव उनमें भी हैं, फसलों के नष्ट हो जाने के कारण जीवन गुजारना कठिन ईसुरी में भी है और वह केवल तटस्थ कविता वर्णन नहीं है. उस में दर्द है, मजबूरी है. यह उनकी दृष्टि का विस्तार है. नीति भारतीय समाज का एक नियामक तत्व रहा है. आध्यात्मिकता और आस्तिकता तो आंतरिक रूप से समाविष्ट है ही.
अपने समाज का परिचय देती हुई धारणाओं का वर्णन ईसुरी की कविता करती है. कोर्ट कचहरी, अहलकार, रेलगाड़ी, पिस्तौल, महुआ जैसा पेट भरने वाला वृक्ष, सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के संकेत, ये सब भी ईसुरी की कविता में आ रहे हैं तो यह तो प्रमाणित है कि ईसुरी की कविता का लोक भी परिवर्तनों को पहचान रहा था. अतः ईसुरी के काव्य को एक ओर हम लोकरंजन की दृष्टि से पढ़ें तो दूसरी ओर कविता की आलोचना अर्थात उसमें रचनाशीलता की विलक्षणता भी देखें और उन्हें कविता समय से जोड़ें.

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ईशरा! अंदर आओ https://pehachaan.com/%e0%a4%88%e0%a4%b6%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%85%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a4%b0-%e0%a4%86%e0%a4%93/ https://pehachaan.com/%e0%a4%88%e0%a4%b6%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%85%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a4%b0-%e0%a4%86%e0%a4%93/#respond Fri, 26 Apr 2024 07:19:45 +0000 https://pehachaan.com/?p=2843
सुभाष तराण

आपको एक बहुत भोली कविता से परिचित करवाते हैं. इस कविता की ये पंक्तियां मेरी पिछली पीढियों द्वारा विकसित की गयी लुप्त होती स्थानीय भाषा में उस आश्वासन से संवाद की कोशिश है, जिसे हम-आप शिव कहते हैं. दुनिया के लिए यह मंदिरों में रहता होगा लेकिन मेरे लोग तो वक्त की किसी बेनाम तारीख से शिवरात्रि की रात उसका आवाज देकर आह्वान करते हैं और उसके साथ उपरोक्त संवाद के माध्यम से सब कुछ बेहतर होने की कामना करने के बाद पारंपरिक पकवानों तथा प्रतीकात्मक पत्तों का भोग लगा उसे अपने घर में मेहमान की तरह बरतते हैं.
एक समय में महासू क्षेत्र के लगभग हर घर में शिवरात्रि की शाम दरवाजे के बाहर एक छोटे बच्चे को खडा कर मेहमान स्वरूप आराध्य शिव, जिसे हमारे लोग ‘ईशर’ कह कर संबोधित करते थे, से संवाद करते है. तो कविता यूं है-

ईशरा!

उंडा आव.
आई लागा.
भाईंडे भीतर
राजी खुशी.
बाड़ बोईची
फोबदी ए.
शाख फसल
राजियो की.
सुख-समा
आपड़े घरे.
झेड़ो-झमाड़
बोईरी के घरे.
मुशा, कुशा
नदी पार.
बादू-बोईरी
खबरदार.

हिंदी रुपांतरण :
ईशरा!

अंदर आओ.
आ रहा हूं.
घर-बाहर
राजी-खुशी रहेगी.
खेत और पालतू पशु
बढ़ते रहेंगे.
खेतों में फसल
भरपूर होगी.
सुख संपति
अपने घर.
आपदाएं-विपदाएं
बैरी के घर.
चूहे, घास-कुशा
नदी पार.
बीमारी और बैरी
खबरदार.

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देव उठ गए https://pehachaan.com/%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b5-%e0%a4%89%e0%a4%a0-%e0%a4%97%e0%a4%8f/ https://pehachaan.com/%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b5-%e0%a4%89%e0%a4%a0-%e0%a4%97%e0%a4%8f/#respond Thu, 25 Apr 2024 10:21:54 +0000 https://pehachaan.com/?p=2839
मधु सक्सेना

उठ गए तुम देव?
इंतज़ार था.
उठो तो शुरू हो
जगत कल्याण का काम.
करो विवाह, तारो वृंदा को
विवाह का मतलब ही
तारने से है.
विवाह हो जाना याने
लड़की का तर जाना,
उसके माता- पिता का तर जाना,
तभी तो पूज दिए वर के पैर
दान कर दी कन्या
कन्यादान का पुण्य ले लिया.
इस बार उठे हो तो
कुछ तो नया करो
सहमति ले लो एक बार वृंदा से
पूछ लो एक बार लक्ष्मी से


फिर करना विवाह.
और कितनी वृंदायें मात्र पौधा बन कर
रह जायेंगीं
पेड़ बनने का सपना लिए.
पुजेंगीं पर बार-बार सूखेंगी.
हद बना दी
भले ही रंग-बिरंगी है
पर बंधी तो है ना
आस्था के बंधन में?
पुजेगी पर घर में नहीं आएगी
जड़ होकर ही पूजे जाते है हमारे यहां.
अब इस बार जो उठे हो देव
तो कुछ और भी करो.
लक्ष्मी को बता दो समान वितरण के नियम
वृंदा को जड़ मत होने दो.
जाग गए हो तो
आंखें भी खोल लो देव.

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सावन के मायने https://pehachaan.com/%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%b5%e0%a4%a8-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a8%e0%a5%87/ https://pehachaan.com/%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%b5%e0%a4%a8-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%a8%e0%a5%87/#respond Thu, 25 Apr 2024 10:19:45 +0000 https://pehachaan.com/?p=2835
सुनील श्रीवास्तव

चौखट पर खड़ी औरत
बाट जोहती है
कभी पिता की
कभी पति की
कभी पुत्र की
सबसे पुराना रिश्ता है
पिता से
फिर पति से
पिता ने विदा किया
सौगंध खिला कर
चुटकी भर सिंदूर की
मां ने दिलाई याद
संस्कारों की
आशीष दिया
दूधो नहाने और
पूतों फलने की
सब कुछ आंचल में रख
सदियों से वह आ रही है
सजते-संवरते
वही चिटुकी भर सिंदूर
सिंधोरा से
मांग में भरते
कहां हैं झूले,मेहंदी
सखियों की ठिठोली
भाभी की चिकोटी
बारिश की बूंदें
लहराती फसलें
पति परमेश्वर है
आयेंगे
गिरते- पड़ते – लड़खड़ाते
रात के अंधेरे में
मूसलधार बारिश में
खायेगा सौगंध बार-बार
छोड़ दूंगा शराब और जुआ
लड़खड़ाती जबान से
तारीफ करेगा
देह की, सूरत की, बालों की
 वह देखती-सुनती है
हर दिन-रात


सौगंध का खाना और टूटना
महसूस करती है
देहगंध
दिन- प्रति- दिन
चमकती आकाश से निकली
रोशनी में
आंखें नम हैं
बरकरार है देह की टूटन
फिर भी खड़ी है
घर की दहलीज पर
प्रतीक्षा- प्रतीक्षा- प्रतीक्षा
ढूंढती है अर्थ
पिता की सौगंध का
मां के संस्कारों का
पति की देहगंध का,
तलाशती है वह
सदियों से
बंद-खुली आंखों से
सावन के मायने.

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छठ https://pehachaan.com/%e0%a4%9b%e0%a4%a0/ https://pehachaan.com/%e0%a4%9b%e0%a4%a0/#respond Thu, 25 Apr 2024 10:17:14 +0000 https://pehachaan.com/?p=2832 ओम राजपूत

छठ
वो पर्व है
जिसमें धमनियों का सारा रक्त
एकबार के लिए
हृदय की ओर मुड़ जाता है.
रिश्ते जिंदा हो जाते हैं.
इससे
गिरमिटिया को
देस लौटने का
अवसर मिल जाता है.
रिश्तों पर जमी धूल झड़ जाती है.
आस्था का अभिकेंद्र
अपना गांव अपना देस हो जाता है.
हम खिंचे चले आते हैं.
इस पर कि हम
भले
बहुत ही पढ़ लिए हों
और हो गए हो
नास्तिक
विद्वान
कोई सीईओ
प्रोफेसर
आईआई टीयन
आईएएस
पत्रकार
रहने लगे हों
किसी सिलिकॉन वैली में
अथवा
किसी साउथ ब्लॉक में
जेएनयू या कि प्राइम टाइम में


हम
अपनी तार्किकता/बौद्धिकता का आडंबर
त्याग कर
अपनी मां, भाभी, बहन, पत्नी के
आग्रह, अनुराग और आस्था के
अनुयायी हो जाते हैं.
काहे से कि
केवल पर्व नहीं है
और न ही
धार्मिक अनुष्ठान मात्र
यह जीवन का सम्पूर्ण उत्सव है.
यह सदियों से हमारे होने का प्रमाण है.
सदियों की गवाही है.
मुकम्मल तौर पर
छठ
हमारे गांवों का, गलियों का
पेड़ों का, पौधों का, फलों का, अनाजों का,
नदियों-तालाबों का,
सामूहिक नृत्य है, सामूहिक गान है.
सामूहिक प्रार्थना है, सामूहिक उपासना है.

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