– सुधा गोयल
“धरा मम्मी गुजर गयीं. पापा के कहने पर मैंने तुम्हें सूचना दे दी है. मैं निकल रही हूं अभी”, सुबकते हुए बुआजी ने बताया.
मैं उन्हें एक शब्द भी नहीं बोल पाई. बुआजी ने सूचना देकर फोन फौरन काट दिया. इतना पूछने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि ऐसा कब और कैसे हुआ? बुआजी को अपनी मम्मी से प्यार है तो क्या मेरा अपनी दादी मां से नहीं. बुआजी ने दादाजी के आदेश का पालन करते हुए मुझे मात्र सूचना दी है. बाकी मेरी मर्जी कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं.
वे मानें या न मानें, आखिर दादाजी और उनके स्नेह तंतु मुझसे भी जुड़े हैं. वर्ना क्या बुआजी दादाजी की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकतीं थीं? जितना हम बुआजी के प्यार को तरसे हैं क्या उतनी ही कमी बुआजी ने भी महसूस की होगी? संबंधों में लक्ष्मण रेखाएं हमारे बीच हमारे मम्मी-पापा ने खींच दीं. कारण चाहे कुछ भी रहे हों.
कितना सारा सामान हमारे लिए बुआजी लेकर आतीं. बुआजी के कोई बेटी नहीं और हमारा कोई भाई नहीं. अपने कोई तायाजी या चाचाजी नहीं. इन रिश्तों की मिठास चखते तो तब जब कोई होता. मात्र अकेली बुआजी. हर रक्षाबंधन पर दौड़ी चलीं आतीं. उमंग और नमन भैया को हमसे राखी बंधवातीं और राखी बंधाई के लिए भैया हमें सुंदर-सुंदर ड्रेसें देते जिन पर मैचिंग क्लिप, रुमाल, टाफी, चाकलेट तथा चूड़ियां रखी रहतीं.
हम बुआजी के आगे-पीछे घूमते. बुआजी अपने हाथ से हमें नहलातीं, अपना टेलकम लगातीं, खूब खुशबुएं उड़ातीं और अपनी लाई ड्रेसें पहनातीं. अपने साथ बाजार ले जातीं, आइसक्रीम खिलातीं, कोल्डड्रिंक पिलातीं. ढ़ेरों सामान से लदे हम घर में घुसते. दादी मां बुआजी को डांटती कि इतना खर्च करने की क्या जरुरत थी, इन दोनों के पास इतना सामान और खिलौने हैं फिर भी इनका मन नहीं भरता.
हम बुआजी के पीछे छिपे जाते. बुआजी मुस्करा पड़तीं- “ये हम बुआ-भतीजी का मामला है, कोई बीच में नहीं बोलेगा. मम्मी अब घर में शैतानी करने और खेलने कूदने को यही दो बच्चियां ही तो हैं. इनसे घर कितना गुलजार रहता है.”
और हम हिप हिप हुर्रे करते हुए अपना सारा सामान खोलकर सबको दिखाते. मम्मी आंखें तरेरती. हम बुआ जी से शिकायत कर देते और जब हम बुआजी के घर जाते, दोनों भैया अपनी-अपनी साइकिल पर बिठाकर कभी बाजार ले जाते तो कभी पार्क में घुमाने ले जाते. कितना अच्छा लगता था सब, जैसे मुट्ठी में सितारे भर गये हों.
हम झूले पर झूलते और गाते-
“बाबा,तुम चले परदेश हमको कौन बुलाएगा?
तुम चिंता मत करना हमें बुआजी बुलाएंगी,
भैया बुलाएंगे, फूफाजी बुलाएंगे.”
थोड़े बड़े हुए तो गीत के बोल ही भूल गए. मुट्ठी में बंद सितारे बिखर गए. बुआजी का बुलाना तो दूर उनका नाम तक लेने पर पाबंदी लगा दी. बुआजी और भैया आते. हम चोरी- चोरी उनसे मिलने जाते. वे प्यार करतीं. उनकी आंखें नम हो आती. बुआजी हमें चाकलेट देती. हम वहीं खा लेते. मुंह साफ करते और उनके पास आ जाते. मम्मी पूंछती- “बुआजी ने क्या खिलाया?”
हम झूठ बोलते-“कुछ नहीं.”
बुआजी को गलबहियां डाल उनकी बगल में सोने का बड़ा मन करता. हम कहते, बुआजी अभी मत जाना. हम चुपके-चुपके आते रहेंगे. आप आइसक्रीम खिलाना.
बुआजी आइसक्रीम और चाकलेट खरीद कर फ्रिज में रख जातीं. मम्मी-पापा ने उन्हें कभी अपने घर नहीं बुलाया. भैया से भी नहीं बोले. जबकि बुआजी अभी भी हम पर जान छिड़कती थीं. राखियां खुल गई, रिश्ते बेमानी हो गये. कैसे इंतजार करुं कि कभी बुआजी बुलाएंगी और उलाहना देंगी- “धरा और तान्या, तुम अपनी बुआ जी को कैसे भूल गयीं? कभी अपनी बुआ के घर आओ ना.”
कैसे कहती बुआजी? उनके आगे रिश्तों का एक जंगल जो उग आया था और उसके पार बुआजी आ नहीं सकती थीं. जाने ऐसे कितने जंगल रिश्तों के बीच उग आए जो वक्त बेवक्त खरोंच कर लहुलुहान करते रहे. बुआजी के एक फोन से कितना कुछ सोच गई हूं.
पल भर में मैंने स्वंय को सोचों से उबारा और अपने कर्त्तव्य की ओर उन्मुख हुई. तानी यानि तान्या को मैंने फ़ौरन फोन मिलाया. सुनते ही बोली- “दीदी, फिलहाल मैं नहीं निकल पाउंगी. बंगलौर से वहां पहुंचने में दो दिन तो लग ही जाएंगे. तब तक पंहुचने का फायदा भी क्या?फ्लाइट का भी भरोसा नहीं. टिकट मिलें या नहीं. ईशान भी यहां नहीं है. मैं तेरहवीं पर पहुंचूंगी, प्लीज आप निकल जाइए. आप तो पास ही हैं, दो-तीन घंटे लगेंगे. दीदी आपको खबर किसने दी? कैसे हुआ ये सब? पूछते-पूछते रोने लगी तानी.
‘तानी मुझे कुछ भी नहीं पता. बुआजी का फोन आया था. कितना प्यार करती थी दादी मां. तानी, क्या हमारा जाना मम्मी को अच्छा लगेगा? क्या मम्मी-पापा भी उन्हें अंतिम प्रणाम करने आएंगे?”
“नहीं दीदी, जो रिश्ते जीवन में टूट जाएं, मृत्योपरांत उनका जुड़ना या न जुड़ना बेमानी है. ये समय रिश्तों को तौलने का नहीं है. मम्मी-पापा की पसंद-नापसंद का हमने कभी ख्याल किया? वे अपने रिश्ते आप जानें. हमें तो अपनी दादी मां के करीब उनके अंतिम क्षणों में होना चाहिए. दादी मां को अंतिम प्रणाम करने के लिए तरस रही हूं. आप दादी मां को मेरी तरफ से एक मुट्ठी फूल अवश्य चढा देना और कहना- “दादी मां, तुम्हारी नटखट तानी तुम्हें बहुत मिस कर रही है.”
मैंने फोन हर्ष के आफिस लगाया और इस दुखद समाचार से उसे अवगत कराया. उत्तर मिला – “तुम तैयार रहना, मैं पंद्रह मिनिट में पंहुच रहा हूं.”
फोन रखकर मैंने अलमारी खोली. तैयार होने के लिए साड़ी निकालने लगी. तभी दादी मां की दी हुई कांजीवरम की साड़ी पर निगाह पड़ी. मैंने छुआ, लगा मैं दादी मां को छू रही हूं. उनका प्यार मुझे सहला गया है. दादी मां के लिए सलवार-सूट, जींस-टॉप सब यही रखें हैं. मैं एक एक चीज पर हाथ फिराकर देखने लगी. इतना प्यार इन चीजों पर इससे पहले कभी नहीं आया था. इन सब में मुझे दादी मां का सुखद एहसास मिल रहा है.
आंखें हैं कि बही जा रही हैं. रुकने का नाम ही नहीं ले रहीं. लॉकर खोला. दादी मां की दी हुई चेन, अंगूठी ,टाप्स, लौटते समय दादी मां मुट्ठी में थमा देती. एक दो बार हर्ष ने मना करना चाहा तो दादी मां की आंखें भर आईं. बोलीं- “हर्ष बेटा, इतना सा अधिकार भी तुम देना नहीं चाहते. ये प्यार और दुआ के फूल हैं, कोई भौतिक संपन्नता के प्रतीक नहीं. एक मां की आंखों में झांक कर देखो. तुम्हें कुछ देकर मुझे सुकून मिलता है. जिस दिन अभाव या कष्ट होगा नहीं दूंगी.”
“दादी मां, मुझे क्षमा करें. आपका प्यार और आशीर्वाद हमेशा सहेज कर रखूंगा”, और तभी से हर्ष दादी मां से मिले नोटों पर एक छोटा सा फूल बनाकर संभाल कर रखने लगे और मुझे भी हिदायत दी कि दादी मां के दिए रुपए खर्च न करुं.
हमें नहीं पता कि मम्मी-पापा का झगड़ा दादाजी और दादीजी से किस बात पर हुआ. बस धुंधली सी याद है. उस समय मैं छः साल की थी. पापा, दादी मां से खूब झगड़े थे और उसी घर में ऊपर रहने लगे थे.
कभी मम्मी-पापा से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी या हिम्मत नहीं हुई. कुछ दिन तक मम्मी पापा ने हमें उनके पास नहीं जाने दिया. यदि हमें उनसे कुछ लेते देख लेते तो छीन कर डस्टबिन में फेंक देते और दादी मां को खरी-खोटी सुनाते. दादी मां ने कभी उनकी बात का जवाब नहीं दिया. वे चुप रह जातीं. हमें खूब गुस्सा आता. दादी मां इतना क्यों हैं? पर हम कर भी क्या सकते थे. हमें पापा गंदे लगते क्योंकि मम्मी-पापा हमेशा उनके बारे में गंदी-गंदी बातें करते.
जब पापा काम पर चले जाते और मम्मी आराम करने लगतीं उस समय हम यानी मैं और तानी चुपके-चुपके नीचे उतर जाते. दादी मां कलेजे से लगा लेतीं. हमारे लिए दादाजी से टाफी, चाकलेट, बिस्कुट, फल, फ्रूटी मंगवाकर रखतीं. कभी इडली, छोले-भटूरे, हलवा या पकौड़ी जैसा कुछ भी बनातीं तो हमारे लिए उठाकर रख देंती. फ्रिज में कोल्ड ड्रिंक और आइसक्रीम अवश्य होती. हम दूर से ही पापा के स्कूटर की आवाज सुनकर सब खाने का सामान वहीं छोड़कर चप्पलें हाथों में उठाए ऊपर पंहुच जाते और खेलने लगते जैसे हम नीचे गये ही न हों.
मम्मी पापा से शिकायत करती. पापा हमें दो-दो चांटे लगाते. कान पकड़वाकर प्रोमिस कराते कि फिर नीचे नहीं जाएंगे और वहां से कुछ भी नहीं लेंगे. हम डर कर प्रामिस कर लेते लेकिन उनके घर से निकलते ही हम आंखों-आंखों में इशारा करते और अपने दोस्तों के साथ खेलने का बहाना कर दादी मां के पास पहुंच जाते. दादी मां की गोद में लेट जाते. वे हमें खूब प्यार करतीं और समझातीं, “अच्छे बच्चे अपने मम्मी-पापा की बात मानते हैं.”
“हमें उनकी बातें समझ में नहीं आतीं.”
तानी गुस्से में कहती, “वे आपके पास नहीं आने देते. हम तो यहां जरूर आएंगे. क्या आप हमारे दादा जी, दादी मां नहीं हो? क्या आपके बच्चे आपकी बात मानते हैं जो हम मानें?”
दादी मां के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं होता था. बस स्नेह से गाल थपथपा कर कहतीं, “जरुर आना. तुम दोनों बहुत प्यारी बच्चियां हो.”
दादी मां को पापा की इन बंदिशों से दुःख तो अवश्य पंहुचता होगा लेकिन वे अपना दुःख प्रकट नहीं कर पातीं थीं. हां मम्मी-पापा के लिए हमारे मन में विद्रोह अवश्य पनप रहा था. हमारे अंदर ढेरों सवाल थे. दादी मां सबको प्यार करतीं हैं. हमें भी कितना प्यार करतीं हैं. फिर मम्मी-पापा से कैसे झगड़ा कर सकतीं हैं? पता नहीं मम्मी-पापा इन्हें कंजूस क्यों कहते हैं? हमारे लिए कितना कुछ करतीं हैं. इन सवालों के कहीं उत्तर नहीं थे.
दादी मां के एक तरफ मैं लेटती, दूसरी तरफ तानी और बीच में दादी मां. रोज नई कहानियां सुनातीं और पापा जब छोटे थे तब की ढेर सी बातें बतातीं. हमें बड़ा मज़ा आता.
वे दोनों कभी सुबह से शाम तक के लिए कहीं चले जाते तो हमारे पेट में दर्द होने लगता. स्कूल की बातें किसे सुनाएं. मम्मी को तो फुर्सत ही नहीं है. ज्यादा कहने पर दो-चार चांटे लगा देंगी. जैसे मम्मी का तो कभी पढ़ने से वास्ता रहा ही नहीं. जो भी पढ़ातीं गलत पढ़ातीं. स्कूल में पनिशमेंट मिलती. इसी से हम दादी मां से अपनी प्राब्लम साल्व कराते.
अपनी कापियां किसे दिखाएं जिन पर तीन-तीन स्टार मिलें हैं? उफ़! नई कापी, नई ड्रेस, नई पेंसिल-रबर और लंच बाक्स भी तो दिखाना है. दादा जी की जेब की तलाशी लेनी है जिसमें से कभी जैली, कभी चुइंगम और कभी टाफी मिल जाती है. दादाजी जानते हैं कि बच्चे जेबों की तलाशी लेंगे, उन्हें निराश नहीं करना है. उनके मतलब का कुछ तो मिलना ही चाहिए.
दादी मां दादाजी से झगड़तीं, “तुमने टाफी, चाकलेट खिला-खिला कर इनकी आदतें खराब कर दी हैं. ये तानी सारा दिन चीज मांगती है, फल नहीं खाती. अब आप कुछ भी नहीं लाएंगे. इसके सारे दांत खराब हो रहे हैं.”
दादा जी चुपचाप सुनते और मुस्कराते रहते. जबकि स्वयं दादी मां के पर्स में सौंफ की रंग-बिरंगी गोलियां या अनारदाने के पाऊच मिल जाते. हम दादी मां का पर्स खोलकर अपने मतलब की चीजें निकाल लेते. वे हमारे पीछे भागतीं. हम भी भागते. हमें पकड़ कर दादी मां खूब हंसती और कहतीं, “शैतानों तुमने थका डाला. मेरी सांस भी उखड़ने लगी है.”
और जब शादी पक्की हुई, दादी मां हर्ष को देखने के लिए कितना तड़पीं और जब नहीं रहा गया तो एक दिन बोलीं, “धरा अपना दूल्हा नहीं दिखाएगी?”
“अभी दिखाती हूं दादी मां” और एक छलांग में हर्ष का फोटो लाकर उनके हाथ में थमा दिया. वे कभी मुझे देखतीं कभी फोटो को. फिर बोलीं, “हर्ष बहुत सुंदर है. बिल्कुल तेरे अनुरुप”.
मैंने तभी हर्ष को फोन लगाया, “दादी मां मिलना चाहती हैं, शाम तक पहुंचो.” और शाम को हर्ष दादी मां के पांव छू रहा था.
शादी में सप्तपदी के बाद मैं अड़ गयी की विदाई घर से होगी. असल में मुझे अपने दादाजी और दादी मां से आशीर्वाद लेना था. जब भी मायके जाती दादी मां सौगात के रुप में कभी रिंग, कभी कर्णफूल, कभी साड़ी मुट्ठी में दबा देती. उन्होंने कभी खाली नहीं आने दिया.
“धरा, तुम अभी तक तैयार नहीं हुईं. अलमारी पकड़े क्या सोच रही हो?”
“हर्ष, मेरी दादी मां चलीं गईं. मेरा मुट्ठी भर प्यार चला गया. अब कौन मेरी मुट्ठी में सौगात ठूंसेगा? कौन आशीर्वाद देगा? मैं अपनी दादी मां को निर्जीव कैसे देख पाऊंगी?” मैं रोने लगी.
हर्ष और धरा जब वहां पहुंचे लगभग सभी रिश्तेदार आ चुके थे. दादी मां के पास बुआजी और अन्य महिलाएं बैंठी थीं. वह बुआजी को देखकर उन्हें लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगीं. रोते-रोते पूछा, “मम्मी-पापा?” बुआजी ने ना में गरदन हिला दी. धरा दनदनाती हुई ऊपर जा पहुंची. उसका रोदन क्षोभ बनकर फूट पड़ा, “आपको मम्मी-पापा कहते हुए आज मुझे शर्म आ रही है. पापा आपने तो अपनी मां के दूध की भी लाज नहीं रखी. एक मां ने आपको नौ माह अपनी कोख में रखा, आज उसी का ऋण चुका देते. अब तो आप दादी मां को बेटे की मां बनने के अभिशाप से मुक्त करिए. और मम्मी जिसने अपना कोखजाया आपके आंचल से बांध दिया, अपना भविष्य, अपनी उम्मीदें सब आपको सौंप दीं. उन्हीं के पुत्र के कारण आप मां का दर्जा पा सकीं. एक औरत होकर औरत का दिल नहीं समझ सकीं? उन्हीं के कारण आप इस घर में आ सकीं हैं. कितने कृतघ्न हैं आप दोनों.
यदि आप अपना फर्ज नहीं निभाएंगे तो क्या दादी मां यों ही पड़ी रहेंगी? आप सोचते होंगे कि इस समय दादाजी आपकी खुशामद करेंगे. नहीं, उमंग भैया किस दिन काम आएंगे? पापा, क्या आप अपनी देह से उस खून और मज्जा को नोच कर फेंक सकते हैं जो आपको इन दोनों ने दिया? उनका दिया नाम आज तक आपने क्यों नहीं मिटाया? आपकी अपनी क्या पहचान है? आप आज भी उनके बनाए मकान में किस अधिकार से रह रहे हैं? यदि आज आप दोनों ने अपना फर्ज पूरा नहीं किया तो इस भरे समाज में मैं आपका त्याग कर दूंगी और दादाजी को अपने साथ ले जाऊंगी.”
चौंक पड़े दोनों. धरा तो कभी ऐसी नहीं थी. क्या हुआ है इसे?
“धरा, तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए था.”
“क्यों न आती? मेरी दादी मां चलीं गईं हैं, उन्हें अंतिम प्रणाम करने का अधिकार कोई भी नहीं छीन सकता, आप लोग भी नहीं.”
“होश में आओ धरा”.
“अभी तक होश में नहीं थी पापा. पहली बार होश आया है और अब मैं सोना नहीं चाहती. आज उस मुट्ठी भर प्यार की कसम, आप दोनों नीचे आ रहे हैं या नहीं?”
धरा की आवाज में चेतावनी थी. विवश हो मम्मी-पापा को नीचे आना पड़ा.