– बाबूलाल दाहिया
अपने गांव के भूले बिसरे लोगों में एक नाम अक्सर स्मरण हो आता है वह है बंदू कुम्हार का. बंदू जी अद्भुत आल्हा गायक थे. वे ढोलक के थाप पर घंटों गाते रहते. आल्हा गायकी एक वीरछंद काव्य है जो साहित्य की एक अत्यंत सरल विधा भी है. उसमें हमारे कई कवि मित्रों ने अपने खंड काव्य लिखे हैं. परंतु मौखिक परंपरा में हमारे अपढ़ अनाम गायकों ने 12वीं सदी से पिछली शताब्दी तक किस प्रकार इस छंद विधा को अपने कंठ में बसा कर जीवित रखा, आश्चर्य तो यह है. हो सकता है इस मौखिक आल्हा गायकी के मूल में टीकमगढ़ के भाट कवि श्री जगनिक जी की पंक्तियां ही रही हों जो बुंदेली से बघेली में अनूदित हो गई हों? पर आश्चर्य तो यह है कि वे विगत 7 सौ वर्षों तक वाचिक परंपरा में लोक कंठ में रची बसी रहीं.

यद्द्पि पचास के दशक तक तमाम बड़े-बड़े ग्रामों में स्कूल खुल गए थे इसलिए पढ़े-लिखे युवाओं के हाथ में आल्हा काव्य की नारायणदास, सीताराम और मटरूलाल अख्तर आदि रचनाकारों की अनेक पोथियां आ गई थीं, परंतु इसके पहले प्रत्येक गांवों में ऐसे अनेक आल्हा गाने वाले गायक होते थे जो ढोलक के थाप के साथ गाकर आल्हा गीत सुनाया करते थे. उनकी वह राजपूतों के शौर्य को बखान करती शैली बड़ी ही मनमोहक और रोमांच पैदा करने वाली होती थी.
हमारे गांव में भी यह आल्हा गायकी प्रचलन में थी. जब मैं लड़कपन की याद करता हूं तो एक धुंधला सा चेहरा आज भी उभर आता है जिनका नाम ऊपर ही बता चुका हूं. कजलियों के त्यौहार में समस्त गांव के बालक, वृद्ध, युवा सभी तालाब के समीप कालिका देवी मंदिर परिसर में एकत्र हो कजलियां मिलन समारोह मनाते लेकिन उसके पहले युवाओं की कबड्डी और बंदू जी का आल्हा गायन होता. वे ढोलक के साथ घंटों तक उस आल्हा गीत को इस प्रकार गाते थे कि युवाओं के भुजाओं में जोश का संचार हो उठता. लोगों को ऐसा लगने लगता जैसे वे कालिका मंदिर परिसर में नहीं बल्कि 12वीं सदी के उसी काल खंड में उरई के मैदान में खड़े हैं जहां पृथ्वीराज और आल्हा ऊदल की सेना आमने-सामने लड़ने के लिए तैयार है.
बंदू जी की गायकी की प्रथम पंक्ति जो मुझे याद है वह पूर्णतः लड़ाकू सामंती व्यवस्था पर आधारित थी. उसमें आल्हा-ऊदल का कोई चाकर घोड़ों की सेवा करने वाले चरवाहों को आवाज दे रहा है. परंतु बाद में वह वाचिक परंपरा की गायकी पृथ्वीराज से युद्ध तक पहुंच जाती थी. खेद तो यह है कि उस समय मेरी अवस्था सीमित समझ वाली ही थी वर्ना उस समस्त गायकी को ही लिपिबद्ध कर लेता. लेकिन किसी विद्वान का यह कथन कितना यथार्थ है जिसमें उनने कहा है कि “अगर आप के बीच से कोई बुजुर्ग गुजर जाता है तो यह समझना चाहिए कि आप की एक चलती फिरती लाइब्रेरी ही चली गई.”
सचमुच मेरे गांव की अनेक चलती-फिरती लाइब्रेरियां चली गईं हैं लेकिन इस लाइब्रेरी की, गायकी की कुछ पंक्तियां अभी स्मरण में शेष हैं जिन्हें आपके साथ साझा कर रहा हूं-
चरवा चरबा कह गोहराबय,
सारे चरबा होस मुंह बोल.
कोऊ बछेड़ा लइआबा,
कोउ पोछा पटोरन पीठ.
रोमन रोमन मोती गुह,
जेमा हीरा बयालीस लाग.
अस्सी रूपइया कय कलगी,
माथे मही देत्या बधाय.
लील क कण्ठा ओखे गरे बांध दे,
घोड़ा डीठ मार न रे जाय.
धउ लइजइहे बेटा आमरित लोकय
धउ लइजइहे पताल.
सान महोबे कय रखिहे,
तय तो मदन ताल मइदान.
ना लइजइहउ अमरित लोकय,
ना लइजइहउ पताल.
मोरे पीठाहे वा बइठय,
दुइ दुइ हाथे करय तरवार.
लोहर मड़इया घन गरजय,
अउ जरय पमारिन लोह.
बारा बरिख का भा ऊदन,
जउन बइठे गढ़ाबय सांग.
टूटय सेहेरुआ जइसय भाठे क,
जइसय आसमान अरराय.
मउसी क बेटा मलखानां,
जउन कुरअन घिउ पी जाय.
पकड़ दतूसा हाथिन का रे
व तो फइक बगरे रे देय.
बारा बारिश भर कूकुर जियय,
स्वारा जियय सियार.
क्षत्री क जीना तीस बारिश,
जब भर बधय न ढाल तरवार.
तो यह था हमारे गांव के अल्हैत बंदू जी का आल्हा जिसे वे मौखिक परम्परा में घंटों गाया करते थे. 70 वर्ष पहले सुने इस गीत की ये दो-चार पक्तियां ही अब स्मरण में बचीं हैं.
- बाबूलाल दया