– निशा कुलश्रेष्ठ

तुम दिन भर करती क्या हो?
हां, मैं सचमुच दिन भर करती भी क्या हूं?
मैं एक सामान्य सी गृहणी
सुबह से शाम तक
जो बिना किसी शुल्क के बनाये रखती है संतुलन
सारे परिवार का,
मैं भला करती भी क्या हूं?
मैं करती क्या हूं
सुबह उठती हूं और चकरघिन्नी सी
सारे घर को संभालती हूं यहां से वहां तक,
इस्तरी किए कपड़े जिन्हें निकाल कर
तुम आसानी से पहन जाते हो
अपने दफ्तर जाते हुए.
और महसूसते हो खुद को लार्ड साहब
उस वक्त मैं समेट रही होती हूं
एक लम्बी सांस भर कर
तुम्हारे और बच्चों के उतर कर फेंके
इधर उधर कपडे.
मैं करती ही क्या हूं?
हम बाजार जाते हैं
तुम बटुए का बोझ उठाये चलते हो
और मैं एक खाली झोला मुट्ठी में बांधे
तुम्हारे पीछे पीछे हो लेती हूं
तुम चुकाते हो कीमत
उन सभी जरुरी सामानों की
जो जीने के लिए हर महीने घर आने जरुरी हैं
और मैं उस भरे हुए झोले का बोझ उठाये
चल पड़ती हूं संग तुम्हारे.
मैं करती क्या हूं
सर्दियों में तुम्हारी पसंद के साग
और मक्के बाजरे की रोटी
रसोई में बनाती हूं, तुम्हें बना कर खिलाती हूं
और तुम्हे खाते हुए देख कर सुख पाती हूं,
मैं करती क्या हूं
उंगलियाँ दुखती हैं न तुम्हारी
जब तोड़ते हो गुड की डली कभी अपने हाथों से
जब ठण्ड में गुड़ की टूटी डेलियां हाथ में पाते हो
गर्म दूध के संग उस मिठास को पाते हो.
मैं करती ही क्या हूं
स्कूल से आये बच्चों की दिन भर की
धमाचौकड़ी से लेकर उनके होमवर्क कराना
पल पल उनकी और तुम्हारी जरूरतों का ध्यान रखना
मैं करती ही क्या हूं
कि शाम को जब कभी तुम
समय पर घर नहीं पहुंचे
तुम्हारे आने पर रो रो कर झगड़ती हूं
कहां रहे इतनी देर, क्यों देर हुई
एक फोन कर देते,
पर इस झगडे के पीछे मेरी चिंता को
तुम कभी नहीं समझ सके
मैं करती ही क्या हूं
ऐसे तमाम प्रश्न हैं जिनका उत्तर
तुम्हें तब मिल गया होगा
जब पिछले दो महीने से एक बड़े ऑपरेशन से गुजरने के बाद
मैं बिस्तर पर हूं
और तुमने हर उस काम के लिए बाई लगायी हुई है
जो जीने के लिए जरुरी है,
महीने के अंत में
खाना बनने वाली को
घर की साफ सफाई करने वाली को .
कपडे धोने वाली को, प्रेस करने वाले को
उनके पेमेंट दिए होंगे
उसके बावजूद भी
जहां-जहां तक नजर जाती है मेरी
मैं देख रही हूं
मेरा घर बिखर गया है.
कीमती साज सज्जा पर धूल उतर आई है.
टेबिल क्लॉथ कब से खिसक कर आड़ा-तिरछा सा
बस पड़ा है टेबिल पर,
सोफे पर करीने से रखे कुशन जो अब पड़े हुए से दिखते हैं
फ्रिज भर गया है बचे हुए खाने पीने से
तुम्हारी ख़ामोशी बढ़ गयी है पहले से भी ज्यादा
( आखिर मेरी बक बक जो बंद है इन दिनों )
छोटी बेटी के चेहरे पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह चस्पां है
मम्मा आप कब ठीक हो जाओगी
क्या उम्मीद करूं??
कि अब तुम को ये उत्तर मिल गया होगा –
कि आखिर मैं दिन भर करती क्या हूं ?
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( काश कि एक गृहणी को भी सरकार ने तनख्वाह तय की होती )