– माया मृग
मैं पीपल हूं
कब से हूं, पता नहीं
कब तक हूं, तय नहीं.
बूढ़े पीपल की उम्र
उसकी बातों में है.
सबके अंदाज, सबके अनुमान तय करते हैं
कब से है मेरे भीतर पीपल का होना.
लोगों के कहे से अब
मैं मानने लगा हूं
मेरी उम्र मेरी बातों में है,
मेरी बात समय में,
समय कब किसके साथ रहता है, कौन जानता है.
मेरी गवाही का हवाला देकर
अपने अनुभव बखानते हैं गांव के लोग
सच में अपनी उम्र का झूठ मिलाते हुए कहते हैं
मिट्टी का रंग बदलते देखा है मैंने
रंग नहीं बदलती मिट्टी, मिट्टी बदल जाती है.
मेरे सामने टूटा पहाड़
मेरे होते फटे बादल और मेरे रहते मर गई सब चिडि़यां.
यहीं इसी जगह था जंगल
जहां से निकली है सड़क, बरसाती नदी सी
अपने साथ बहाते हुए सब.
मैंने चुपचाप देखा आसमान को अपने से दूर जाते
मैं तब भी था जब लोग कहते थे
सूरज चक्कर काटता है धरती के
मैंने तब भी नहीं पूछा धरती से
तुम्हारे होने से सब है कि सब होने से हो तुम.
झूठ है ये कहना कि मैंने सबको देखा आते हुए
सच है मैंने सबको देखा, जाते हुए
तब भी फर्क नहीं पड़ता कुछ.
मेरे होने न होने से भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा
कुछ जगह, कुछ देर को रहेगी खाली
अपनी उम्र को अनुभव की तरह खोदते हुए
कुछ देर सोचने के बाद कहेंगे गांव के बूढ़े लोग
अरे हां, यहां तो पीपल था एक!
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