– अना क़ासमी
(1)
आज पहली बार बेटी ने पकाई रोटियां.
टेढ़ी-मेढ़ी मोटी पतलीं कच्ची पक्की रोटियां.
फिर से मां की डांट खाई उसकी मंगेतर ने आज
फिर ख्यालों में जला दीं उसने आधी रोटियां.
सारा दिन चूल्हे के आगे ही खड़ी रहती है मां
और खाने बैठती है रोज बासी रोटियां.
कुछ गरीबों को ही दावत पर बुला लेते जनाब
कम से कम फिंकतीं तो ना यह ढेर सारी रोटियां.
पत्थरों को तोड़ने वालों को ताकत चाहिए
और उनको हैं मयस्सर सिर्फ़ सूखी रोटियां.
(2)
उस शख़्स की अजीब थीं जादू बयानियां.
ईमान मेरा ले गईं झूठी कहानियां.
था पारसा तो मैं भी मगर उसने जब कहा
आती कहां हैं लौट के फिर ये जवानियां.
रातों को चांदनी से बदन जल उठा कभी
दिन को महक उठी हैं कभी रात रानियां.
मैं तुझको पाके अब भी हूं तेरी तलाश में
सोचा था ख़त्म हो गईं सब जां फिशानियां.
यह बात भी बजा कि कहा तुमने कुछ न था
फिर भी थीं तेरी ज़ात से कुछ खुशगुमानियां.
(3)
मत आओ फ़क़त कर लो यह इक़रार बहुत है.
तुम फोन पे कह दो कि मुझे प्यार बहुत है.
रस्ते में कहीं जुल्फ़ का साया भी आता हो
अए वक़्त तेरे पांव की रफ्तार बहुत है.
अब दर्द उठा है तो ग़ज़ल भी है ज़रूरी
पहले भी हुआ करता था इस बार बहुत है.
इस खेल में हां की भी ज़रूरत नहीं कोई
लहजे में लचक हो तो फिर इनकार बहुत है.
मुश्किल है मगर फिर भी उलझना मेरे दिल का
आए हुस्न तेरी जुलफ तो खमदार बहुत है.
सोने के लिए क़द के बराबर ही ज़मीं बस
साए के लिए एक ही दीवार बहुत है.
(4)
बचा ही क्या है हयात में अब, सुनहरे दिन तो निपट गये हैं.
यही ठिकाने के चार दिन थे सो तेरी हां हूं में कट गये हैं.
हयात ही थी सो बच गया हूं वगरना सब खेल हो चुका था
तुम्हारे तीरों ने कब ख़ता की हमीं निशाने से हट गये हैं.
हर एक जानिब से सोच कर ही चढ़ाई जाती हैं आस्तीनें
वो हाथ लम्बे थे इस क़दर कि हमारे क़द ही सिमट गये हैं.
हमारे पुरखों की ये हवेली अजीब क़ब्रों सी हो गयी है
थे मेरे हिस्से में तीन कमरे जो चार बेटों में बट गये हैं.
मुहब्बतों की वो मंजिलें हों कि जाहो-हशमत की मसनदें हों
कभी वहां फिर न मुड़ के देखा क़दम जहां से पलट गये हैं .
वही नहीं एक ताज़ा दुश्मन कई को मिर्ची लगी हुई है
हमें क्या अपना बनाया तुमने कई नज़र में खटक गये हैं.
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