जीवन क्या है?

राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी

मुझसे कोई यह पूछे कि एक वाक्य में बतलाओ- जीवन क्या है?

तो मेरा उत्तर होगा – “मूल-प्रवृत्तियों का द्वंद्व और समायोजन.”

मूल प्रवृत्तियों को भारतीय दर्शन ने त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में पहचाना था. विराट प्रकृति में अनंत अन्तरिक्ष और उसमें गतिशील असंख्य ब्रह्मांड और फ़िर एक ब्रह्मांड के ग्रह-नक्षत्र और यह धरती, फ़िर धरती के अन्य असंख्य प्राणियों के साथ मनुष्य. मनुष्य भी प्रकृति की रचना है. प्रकृति में ही रहता है, प्रकृति में ही जीवन की ऊर्जा ग्रहण करता है. उसकी अन्तः प्रकृति की जो गति है उसे मूल प्रवृत्ति या त्रिगुणात्मक प्रकृति कहा जाता है.

1.भूख, 2. रति या सेक्स, 3. संग्रह अथवा लोभ-लालच, 4. प्रभुता, 5. गौरव, 6. आत्मविस्तार या सिसृक्षा या संतानकामना, 7. रक्षा, 8. आराम या प्रयत्न-लाघव, 9. होड़ या अनुकरण, तथा 10. जिज्ञासा (जानने की इच्छा), ये दस मूल प्रवृत्ति हैं जिनसे प्रेरित-उत्तेजित-निर्देशित होकर मनुष्य का जीवन संचालित होता है, हो रहा है.

इनमें से कुछ मूल-प्रवृत्ति अन्य प्राणी या पशुओं में भी होती हैं. भर्तृहरि ने बहुत पहले कहा था- “आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत्‌ पशुभिर्नराणाम्‌”.

भूख, प्रभुता, संग्रह, रक्षा के दबाव में मनुष्य इधर से उधर जाता है, एक देश से दूसरे देश में जाता है भौगोलिक संक्रमण करता है. मूल प्रवृत्तियां ही युद्ध, विषमताओं और अत्याचारों का कारण बनती हैं. मनुष्य मूल प्रवृत्तियों के कारण ही सक्रिय होता है. मूल प्रवृत्ति को डार्विन ने मानव व्यवहार की प्रेरणा कहा तो मैक्डूगल ने जीवन, मस्तिष्क और संकल्प का रहस्य मूल प्रवृत्तियों को ही बतलाया.

जिस प्रकार जलधारा ऊपर से नीचे की ओर सहज ही बहती है, उसी प्रकार मानव का मन मूल प्रवृत्ति के प्रवाह में सहज ही प्रवाहित होता है. सहज है क्योंकि प्रकृति है और प्रकृति है इसलिए ये बदलती नहीं, जो मूल प्रवृत्तियां बर्बर युग में थीं, वही आज भी हैं. मूल प्रवृत्ति का सवाल वही है, नया नहीं है.

1. भूख. पशु-पक्षियों में हम देख सकते हैं, रोटी का टुकड़ा है एक, दूसरा कुत्ता आ गया, भोंकना शुरू हो गया. भूख के लिये प्रत्येक प्राणी अपना-अपना जुगाड़ करता है, द्वंद या संघर्ष भी करता है. रोटी की खोज, रोटी के लिए संघर्ष खेत का, जमीन का, संघर्ष टेक्नोलॉजी में परिवर्तन का कारण भी मूल प्रवृत्ति है. जंगल में भूख का संघर्ष और बलवान का भोजन. रोजगार अर्थात्‌ रोटी.  रोटी अर्थात्‌ भूख की मूल-प्रवृत्ति.  एक ने इतना संग्रह किया कि दूसरे के लिए दाना-दाना मुश्किल बात बन गयी. एक ने जमीनों पर कब्जा किया और दूसरे के लिए झुग्गी भी दु:स्वप्न हो गया. इस संघर्ष या द्वंद के बीच ही शोषण के विरुद्ध विचार का जन्म होता है. गरीब और अमीर की लड़ाई.  आर्थिक-हितों का संघर्ष क्या है? भूख की लड़ाई है. किसानों का आंदोलन उसी का रूप था.

2. रति या सेक्स. नर और नारी का परस्पर आकर्षण प्राकृतिक और अमोघ है. इसे आप बंदरों में भी देख सकते हैं. जब मौसम होता है तो सेक्स के लिए बंदर और कुत्तों का संघर्ष देखा जा सकता है. रति संबंध की भावना इतनी प्रबल है कि तनिक भी संदेह होने पर हत्या जैसे अपराध भी हो जाते हैं. इसलिए सामाजिक विवेक विवाह जैसे रीति-रिवाजों, सतीत्व और पातिव्रत के रूप में मूल्यों अथवा पाप-पुण्य की अवधारणाओं की प्रतिष्ठा करता है. इन प्रवृत्तियों को भक्तों और संतों ने विषय वासना के रूप में देखा, माया के रूप में देखा महाप्रभु वल्लभाचार्य ने, कहा- “जीवा: स्वभावतो दुष्टा:”, जीव स्वभाव से दोष युक्त होते हैं. इसी से राग जन्म लेता है, कला, संगीत, नृत्य की भूमि यही राग है.

3. संग्रह. संग्रह की मूल-प्रवृत्ति ही है कि एक ने प्राकृतिक-संसाधनों पर कब्जा कर लिया, दूसरा रोजगार के लिए लड़ रहा है. लोभ-लालच को सभी समझ रहे हैं.

4. जिज्ञासा. जिज्ञासा मूल प्रवृत्ति के कारण से नए विचार आते हैं, ज्ञान- विज्ञान का विकास होता है. जिज्ञासा प्रवृत्ति के द्वारा मनुष्य प्रकृति के संबंध में जानकारी करता है, जीवन के संसाधनों की खोज करता है और अपने लिए एक अनुकूल परिवेश की रचना करता है, टेक्नोलॉजी की रचना करता है, प्रौद्योगिकी की रचना करता है. मनुष्य के समस्त ज्ञान-विज्ञान प्रकृति का अध्ययन करने वाले विज्ञान (नेचुरल साइंस) हों अथवा दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, मानवशास्त्र, साहित्य, कला, राजनीति शास्त्र, धर्मशास्त्र, मनोविज्ञान आदि मूल प्रवृत्तियों के द्वंद्व तथा समायोजन का रूप हैं.

5. आत्मविस्तार या सिसृक्षा या संतान कामना संतान की इच्छा के परिणाम स्वरूप नई संतति आती है. संतान कामना से ही परिवार का जन्म होता है. वंश विस्तार होता है. जाति, कुनबा, कबीला, राष्ट्र इसी का विकास है.

6. रक्षा. प्रकृति से रक्षा और अन्य जानवरों से भी रक्षा. (शेर) का भय. रक्षा के लिए ही चिड़िया नीड़ (घोंसला) बनाती है, चूहा बिल बनाता है, जंगली जानवर गुफा बना लेते हैं. राज्य का विस्तार, युद्ध, सेना, ये भौतिक द्वंद्व के रूप हैं, इसके लिए अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण, अस्त्र-शस्त्रों का उद्योग और व्यापार होता है. 

7. प्रभुता और 8. गौरव. गौरव और प्रभुता मूल प्रवृत्तियां हैं, इसे हम अहंकार या घमंड के रूप में जानते हैं. जाति की बात उठ रही है, यह गौरव की प्रवृत्ति से जुड़ा सवाल है. चुनाव का युद्ध प्रभुता का युद्ध है. निचले स्तर पर दादा लोग अपनी सीमा बनाते हैं. धर्म और जीवन मूल्यों का द्वंद्व भी मूल रूप से रक्षा (भय) और अधिकार की लड़ाई है, गौरव और प्रभुता की मूलप्रवृत्तियों की लड़ाई है.   

9. होड़ या अनुकरण. एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से और एक समाज दूसरे समाज से सांस्कृतिक तत्व ग्रहण करता है, अनुकरण करता है. हम बालक को देखते हैं, उसका बोलना-चलना उठना-बैठना बड़ों की तरह ही तो होता है फिर बड़े होकर वह भी होड़ करता है, उसको भी बढ़ना है, तो वह दूसरे को देख कर के बढ़ता है, दूसरे को देख कर के बनता है, यह फैशन इत्यादि का प्रचलन उस होड़ का ही परिणाम है.

10. आराम या प्रयत्न लाघव के कारण वर्ग का जन्म होता है. एक काम करता है, दूसरा उसकी कमाई खाता है. व्यष्टिजीवन में हो अथवा समष्टि जीवन में, जाति या राष्ट्र के जीवन में, संघर्ष अथवा  युद्ध  के विभिन्न रूप हैं. रूस और यूक्रेन का युद्ध हो रहा है.

समाज में रहते हैं तो एक की इच्छा का दूसरे की इच्छा से संबंध है. एक की इच्छा दूसरे की इच्छा को प्रभावित करती है.  एक की इच्छा दूसरे की इच्छा का दमन करती है अथवा एक की इच्छा दूसरे की इच्छा के लिए बाधा बन जाती है, तब द्वंद्व प्रारंभ हो जाता है. इस द्वंद्व के अनेक रूप हैं. व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, व्यक्ति और समुदाय के बीच, वर्ग और वर्ग के बीच.

मनुष्य की बात कुछ जटिल और सूक्ष्म है, उसमें अन्तर्द्वन्द्व भी होता है. बात यह है कि मूलप्रवृत्तियों का यह द्वंद्व अपने नाम और रूप बदल लेता है, उसको बढ़िया-बढ़िया नाम दे देता है. कहीं नारी-अधिकार की लड़ाई है तो कहीं वह जातियुद्ध का रूप ले लेता है. द्वंद्व का यह भौतिक रूप है किंतु इसके अतिरिक्त भावात्मक द्वंद्व भी द्वंद्व ही होता है. ईर्ष्या-द्वेष क्या हैं? निंदा क्या है? भावात्मक द्वंद्व, सांस्कृतिक द्वंद्व में एक पीढ़ी-अंतराल का रूप भी है और दूसरा अपसंस्कृति का भी द्वंद्व है. विचारधारा की लड़ाई हालांकि भावात्मक और भौतिक द्वंद्व एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. कहीं भावात्मक द्वंद्व भौतिक द्वंद्व का रूप ग्रहण कर लेता है तो कहीं भौतिक द्वंद्व भावात्मक द्वंद्व बन जाता है. गाली-गलौज भी द्वंद्व का वाचिक रूप है. मानसिक आघात भी तो आघात ही है. प्रवृत्तियों के द्वंद्व को परिवार में भी देखा समझा जा सकता है, पड़ोस में भी, स्टाफ में भी, समाज में भी राजनीति में भी. ये द्वंद्व एक-पक्षीय भी होता है, द्विपक्षीय या पारस्परिक भी होता है और बहुपक्षीय भी होता है. लेकिन द्वंद्व की यह प्रक्रिया निरंतर है. एक पल के लिए भी नहीं रुकती. मूल प्रवृत्तियों के द्वंद्व, संघर्ष, नियमन, नियंत्रण की प्रक्रिया में सबल-सशक्त की भूमिका निर्णायक होती है. शक्ति का सिद्धांत अपना काम करता है. सोवियत रूस के समाजवादी शासकों ने सोचा था कि प्रशिक्षण करने से ब्रेनवाश करने से मूल प्रवृत्तियों को बदला जा सकेगा, आनुवंशिकी विज्ञान इसी प्रकार से सोचता है और प्रयोग करता है, भिन्न-भिन्न प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न रूपों में  प्रवृत्तियों की गति होती है. प्रवृत्तियों का  वेग बंधन को तोड़ देता है यदि वह दबाया जाता है तो व्यक्तित्व में तनाव कुंठा और अंतर्द्वंद उत्पन्न कर देता है. परिवेश और मूल प्रवृत्तियों के समायोजन की समस्या पेट भरने के बाद मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है. भौतिक द्वंद्व तो होता ही है, जर-जोरू-जमीन का संघर्ष. आर्थिक आदान-प्रदान, उत्पादन-संबंध, प्राकृतिक-संपदा पर नियंत्रण, वर्ग-संघर्ष इस द्वंद्व का ही रूप है, एक मनुष्य की प्रवृत्ति दूसरे मनुष्य की प्रवृत्ति की सहयोगी भी होती है, परस्पर पूरक भी होती है तथा परस्पर विरोधी भी होती है.

सहयोग तथा संघर्ष की यह प्रक्रिया है समाज में निरंतर चलती रहती हैं समाज में जहां आवश्यकताएं समान होती हैं, जैसे भोजन सभी को चाहिए, प्राकृतिक संसाधन सभी को चाहिए, मान्यताओं से रक्षा सभी की आवश्यकता है. समान आवश्यकताएं मनुष्य को एक-दूसरे के निकट लाती हैं. समाज का विकास होता है.

आप वर्ग संघर्ष कहें या जाति का युद्ध कहें या धर्म का युद्ध कहें, मूल रूप से ये सब मूल प्रवृत्तियों का संघर्ष है.

Translate »