प्रियदर्शी व्यास
कहीं गहरी घाटियों में उतर कर, कहीं घने जंगलों में जाकर, कभी ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ कर, तो कभी नाव से सागर या नदी में जाकर प्रकृति के अद्भुत नजारों के बीच स्थित मंदिर, सिद्ध तीर्थ आपने अवश्य ही देखे होंगे. भारत में भला ऐसे स्थानों की क्या कमी?
कई स्थल हैं जो बहुत प्राचीन हैं, सदियों से निरंतर श्रद्धा के केंद्र बने हुए हैं. कई स्थानों का ऐतेहासिक मह्त्व है तो कई के तार पुराणों से जुडे हुए हैं. परंतु एक ऐसी जगह भी है जहां किसी स्थल को देखने के लिए आपको समुंद्र में दूर तक चल कर जाना होगा. जी हां, चलकर, और वो भी तब जब समुद्र अपना जल पीछे ले जाए और आपको चलने के लिए रास्ता दे. ज्वार भाटा तो आप जानते ही हैं, बस यही प्रकृति का जादू है. आपको प्रतीक्षा करना होगी जब समुद्र स्वयम आपको रास्ता दे, तब तक.
भारत के गुजरात में भावनगर के समीप कोलयाक बीच पर अगर आप ज्वार के समय पहुंचेंगे तो समुंद्र की लहरें आपका स्वागत करेंगी और दूर समुंद्र में केवल एक ध्वजा पानी के ऊपर लहराती दिखाई देगी. और जैसे-जैसे पानी उतरेगा, पहले एक स्तंभ दृष्टिगोचर होगा फिर धीरे-धीरे मंदिर.
समुंद्र में करीब डेढ़-दो किलोमीटर अंदर जाके एक पत्थर का बड़ा सा आधार (चबूतरा) बना है, जिस पर स्थित हैं पांच भिन्न आकार के शिवलिंग. कहा जाता है कि यह शिवलिंग पांडवों के द्वारा स्थापित किये गए थे. इसी आधार पर कुंड बने हैं, जिनमें से पानी लेकर शिवलिंग पर जल ढारा (चढ़ाया) जा सकता है. यहीं पार्वतीजी की प्रतिमा और स्तंभ पर हनुमान जी भी विराजमान हैं.
आधार के दूसरे हिस्सों की तरफ समुंद्र उपस्थित रहता है. पंछियों का कलरव, लहरों का मद्धम संगीत और पवन के स्वर के साथ इस मंदिर के दर्शन का आनंद विशेष है. बस याद रखिएगा कि ज्वार आने से पहले आप को वापस लौट जाना है.
इस मंदिर के संदर्भ में जो कथा प्रचलित है उसके अनुसार महाभारत के युद्ध के उपरांत पांडवों को ग्लानि हो रही थी. यह तो सब जानते ही हैं कि अर्जुन युद्ध के लिए तैयार नहीं थे और तब श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दे कर उनको अपना कर्तव्य करने को प्रेरित किया था. पांडवों ने अपना कर्तव्य पूर्ण किया लेकिन इस कर्तव्य पूर्ती में उनके हाथों जो मारे गए वे सभी थे तो स्वजन, गुरुजन ही. इसलिए ग्लानि का भाव सभी को परेशान कर रहा था. इसके हल के लिए पांडवों ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की.
कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने पांडवों को एक काली ध्वजा देकर, एक काली गाय के पीछे जाने का आदेश दिया और बताया कि जहां पर दोनों का रंग सफेद हो जाए उस जगह पर ही पांडवों को तपश्चर्या करनी होगी. तो गाय के पीछे चलते- चलते वे सभी भारत के पश्चिम में इस तट पर पहुंचे. इस जगह पर पहुंचने के बाद गाय और ध्वजा का रंग सफेद हो गया. पांडवों ने तब यहां शिवलिंग स्थापित कर तपश्चर्या की. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी ने पांडवों को निष्कलंक होने का वरदान दिया. तभी से इसे निष्कलंक महादेव के नाम से जाना जाता है.