पृथ्वी पर रहने का किराया

शरद कोकास

people holding a globe
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(मंगलवार, 22 अप्रैल 2025 को पृथ्वी दिवस (Earth Day) की 55 वीं सालगिरह है. अपने इस ग्रह को मूढ़तावश नुक्सान तो बहुत पहुंचाया हमने लेकिन अब समय है कि सचेत होकर इसे सम्हालें. इस अवसर पर “पहचान” में हम शामिल कर रहे हैं, जाने-माने लेखक शरद कोकास का ये लेख.)

सही-सही बताइये, क्या आपके मन में कभी यह ख़्याल आया है कि अगर हमें पृथ्वी पर रहने का किराया देना होता तो क्या होता?आप सोच रहे होंगे कैसा पागल है जो ऐसा अजीब सा  सवाल पूछ रहा है. आपके मन में तो यही होगा कि पृथ्वी तो हमारी संपत्ति है उसका किराया हम क्यों दें?

चलिये एक उदाहरण से देखते हैं. आपने मकान खरीदा होगा या किराए से लिया होगा?  मकान खरीदने से पहले तो हम हमेशा जानना चाहते हैं यह  किसने बनाया है या ज़मीन खरीदने से पहले यह जानना चाहते हैं कि वह ज़मीन किसकी है? या उसके ठीक-ठाक कागज़ात हैं या नहीं? हम इस बात के प्रति आश्वस्त हो जाना चाहते हैं कि हम कहीं ठगे तो नहीं जा रहे. आखिर ज़मीन या मकान का पैसा दे रहे हैं भाई.

ज़मीन या मकान ही नहीं छोटी से छोटी वस्तु भी हम यदि खरीदते हैं या किराये पर लेते हैं तो उसके बारे में जानना चाहते हैं, उसे किसने बनाया? उसका ब्रांड क्या है? वह कहां बनी है? उसका मालिक कौन है? इसके अलावा यह भी कि वह हमारे काम की है या नहीं? आदि-आदि.

ऐसा है तो फिर हम यह क्यों नहीं जानना चाहते कि जिस पृथ्वी पर अपने पुरखों के ज़माने से हम रह रहे हैं वह कहां से आई? न आपने सोचा, न पुरखों ने सोचा, बस अपनी मर्ज़ी हुई और आपस में बांट लिया, मुफ़्त का माल जो ठहरा.

सही है, जो चीज़ मुफ्त में मिल रही हो या जिसके लिए किराया ना देना पड़ रहा हो उसके बारे में क्या पूछना? कहीं से भी आई हो पृथ्वी, कोई भी इसका मालिक हो, हमने तो इसे माल-ए-मुफ्त समझकर इसके टुकड़े-टुकड़े कर इसे बांट लिया है. जो दिमाग से जितना चालाक उसका हिस्सा उतना बड़ा. जो बड़ा ज़मीदार उसके पास सैकड़ों एकड़ ज़मीन और जो सीधा-सादा गरीब उसके पास कुछ नहीं. 

एक ओर कुछ लोगों के पास बड़े-बड़े कारखाने, बड़े-बड़े प्रतिष्ठान और दूसरी ओर किसी के पास अपना कहने को ज़मीन का एक टुकड़ा तक नहीं. देख लो, बड़े-बड़े देश ज़मीन के छोटे-छोटे हिस्से के लिए युद्ध करने में लगे हैं.

close up shot of paper cutouts on a green surface
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वो कहते हैं हमारा कश्मीर, हम कहते हैं हमारा कश्मीर. कश्मीर का मतलब? कश्मीर का आकाश नहीं, कश्मीर की ज़मीन, जो ना उन्होंने बनाई ना हमने  और ज़मीन भी इसलिए ताकि उसमें होने वाली, उससे प्राप्त होने वाली वस्तुओं का दोहन कर सकें. 

हमारे मित्र प्रो.सियाराम शर्मा एक बढ़िया उदाहरण देते हैं, वे कहते हैं आपको याद होगा कुवैत पर अमेरिका का हमला, वह सिर्फ इसलिए  किया गया था कि वहां बेशकीमती तेल था, फ़र्ज़ कीजिये वहां सिर्फ आलू होता, तो क्या अमेरिका हमला करता? 

तो मुफ्त में जो मिला है उसे तो आप बरबाद करेंगे ही. उदाहरण के लिए, अगर आपने मुंबई की चालें देखी होंगी या शहरों की पुरानी बस्तियों में जर्जर मकान देखे होंगे तो उनमें रहने वालों की स्थिति समझ सकते हैं. अक्सर ऐसा होता है कि जब तक यह इमारतें धराशायी नहीं होतीं, लोग इन्हें खाली ही नहीं करते ,दुर्घटनाओं में कई लोग दब कर मर भी जाते हैं. हालांकि उनके रहने के लिए और कहीं ठिकाना भी तो नहीं होता सो जाएं तो जाएं कहां? पीढियां बीत जाती हैं उनकी फुटपाथों पर.

हम लोग भी इस पृथ्वी पर रहते हुए  धीरे-धीरे पृथ्वी को उसी विनाश की ओर ले जा रहे हैं जहां न ये पृथ्वी रहेगी न हम. आप कहेंगे हमें क्या? हमारी आनेवाली पीढ़ीयां जानें. हम तो चैन से रह ही लेंगे अपने जीते जी. लेकिन ऐसा नहीं है भाई. आधी रात को जब यह पृथ्वी हिलती है तब समझ में आता है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ तो है, या फिर बाढ़ का पानी जब देहरी छूने लगता है और खेतों में फसलों को बर्बाद कर देता है तब लगता है कि  ऐसा सोचना सही नहीं है. जब मौसम के परिवर्तन अत्यधिक गर्मी या सर्दी के रूप में सताते हैं तब अपनी कारगुजारियां याद आती हैं. या फिर भोपाल गैस कांड की तरह आधी रात को उठकर भागना पड़ता है तो पता चलता है कि मल्टी नेशनल कंपनियों की गलतियों का खामियाज़ा हमें भुगतना पड़ रहा है.

हालांकि यह इतना आसान नहीं है, इसके पीछे एक षडयंत्र भी है जो विकास के नाम पर विश्व की पूंजीपति सरकारें कर रही हैं, बांधों की जरुरत से ज्यादा ऊंचाई, जंगल और ज़मीन पर मल्टी नेशनल कंपनियों को कारखाने के लिए लाइसेंस, नदियों का जल बेचने की अनुमति, ज़मीन से जल का दोहन और  विकास के नाम पर खेतों का अधिग्रहण. यह पृथ्वी न उनकी है न हमारी लेकिन इसके नष्ट होते जाने का दोष सिर्फ हमीं पर क्यों? सोचा है कभी?

सोचिए और साथ में  वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी की एक कविता  पढ़िए । वे यही कहते है –

* बची हुई पृथ्वी पर*

आज का दिन

इस घाटी में मेरा दूसरा दिन है

और एक-एक कण की रणगाथा से भरी

समुद्र-सहित तैरती यह पृथ्वी

आती-जाती रोशनी का तट है,

ज़मीन की भाषा में ज़मीन को

पानी की भाषा में पानी को

कुछ कहना कितना मुश्किल है,

अपनी भाषा में अपने को

कुछ भी कह सकूं और यहां रह भी सकूं

कितना मुश्किल है.

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