– मधु सक्सेना

मन के न जाने किस जंगल में पलाश फूला
कि झर गई सब विषाद की पत्तियां
सुर्ख हो गए सपने.
अलबेले से सभी रंग आ गए
फागुन से बतियाने.
इन आंखों में गमक गया गुलाब
चम्पा से गालों पर थिरक गया अमलतास,
पांव-पांव चली पुरवाई
लछमा की हंसी से
गूंज उठा जंगल.
प्रेम फिर लिखने लगा
अपनी अमिट परिभाषा,
कभी आंचल की गांठ से बंध गया
तो कभी जूड़े में लगे फूल में अटका
बांसुरी की धुन पर थिरकता हुआ
हर साज़ और आवाज़ में सज गया.
बदलेंगे मौसम
पेड़ गीता का ज्ञान देते हुए
उतारेंगे अपने पीत वत्कल
खाद बनने को आतुर
पीले पात घरती को गोद में मिट जायेगें
फिर उगने के लिए.
बदलते हुए मौसमों में भी
नही बदलेगी
प्रेम की कहानी कहती
कबीर, वारिसशाह और ग़ालिब की
बुलंद आवाज़ ….