बुंदेली के महाकवि ईसुरी को कैसे पढ़ें

डॉ. के. बी. एल. पाण्डेय

बुंदेली के महाकवि ईसुरी को किस तरह पढ़ा जाए? उन्हें ही क्यों, उस समय के विभिन्न अंचलों के अपनी भाषा में लिखने वाले अनेक विशिष्ट कवियों के प्रति भी यह प्रश्न किया जा सकता है. उन्हें अपनी भाषा या बोली में अपने परिवेश की जीवनानुभूतियों को लोक कविता कहकर सीमित कर दिया जाए या जीवन के एक बड़े भूखंड के स्पंदनों, संवेदनों और अनुभवों के संप्रेषण की व्यापक कविता का कवि कहा जाए?

हम प्रायः ईसुरी को लोक कवि की दृष्टि से देख कर उनके प्रति अन्याय ही करते हैं. हम प्रायः ‘ईसुरी की फागें’ कहकर उनकी रचनाएं एक लोक विधा तक सीमित कर देते हैं, भले ही उनकी उत्कृष्ट रचनाशीलता की प्रशंसा करते हैं. फागें तो वे हैं ही और उन्हें फागें कहना गलत नहीं है परंतु जब हम उनका विमर्श साहित्यालोचन के मानकों पर करते हैं तो उन्हें कविता कहना अधिक प्रासंगिक हो सकता है. हम ‘ईसुरी का काव्य’ कहकर जब उनका समालोचन करें तो हम उन्हें व्यापकता से जोड़ने के विचार से प्रेरित होंगे. क्या फागें कविता नहीं होतीं और क्या फागों को सीमित उपलक्ष्य और सीमित समाज के स्तर से उठाकर उन्हें श्रेष्ठ काव्य के रूप में विवेचित नहीं किया जा सकता? ईसुरी तो इसके अनन्य उदाहरण हैं.

बुंदेली के महाकवि ईसुरी अपनी अनुभूति और भाषिक सर्जना में कितने मौलिक और विशद हैं कि भाषा की क्षेत्रीयता के बावजूद उनकी कविता के आस्वाद का धरातल व्यापक है. उपलक्ष्यपरकता और परिवेश की घटनाओं का वर्णन ईसुरी में भी है पर उनकी अधिकतर रचना व्यापकता का प्रभाव रचती स्वतंत्र कविता है. ईसुरी सहज अनुभूति और अकृत्रिम अभिव्यक्ति के कवि हैं. उनमें शास्त्र के नाम पर रूढ़ होती सभ्यता की दिखावट और बनावट नहीं है. उनके राग, विराग में औपचारिकता, गोपन या दमन नहीं है, उनमें कोई ग्रंथि नहीं है.

इसे समझने के लिए हमें उस समाज की मानसिकता को देखना होगा ईसुरी जिसके नागरिक हैं. श्रृंगार या काम के संदर्भ में वहां नैतिक सामाजिक वर्जनाए हैं पर उनमें दुहरापन नहीं है. वहां अगर भाभी से देवर का मजाक का रिश्ता है तो उसे सामाजिक मान्यता प्राप्त है. विवाह में समूह के रूप में अगर स्त्रियां यौनांगों का नाम लेती हुई वर पक्ष से परिहास करती हैं तो वह उनका सामूहिक उल्लास है. वहां कपड़े उतार कर नग्नता को बुरा कहने का व्यावसायिक रिवाज नहीं है. ईसुरी की अकृत्रिमता के संबंध में रामविलास शर्मा ने लिखा है- ‘वास्तव में ईसुरी की रचनाएं इस दोहरी नैतिकता के प्रति एक विद्रोह हैं. उन्हें जीवन से, जीवन के आनंद से, यौवन, उल्लास, इंद्रिय बोध के संसार से इतना प्रेम है कि वे बार-बार सामाजिक निषेध की दीवार से टकराते हैं.’

हम ईसुरी को अपने समय के प्रतिनिधि काव्य में घटित होने के आलोक में देखें. उस समय की प्रतिनिधि कविता का स्वभाव कैसा है? उस संवेदना से ईसुरी की कविता का कहीं कोई जुड़ाव हो रहा है या नहीं? अगर नहीं हो रहा है तो उसका कारण क्या है? यदि हम प्रतिनिधि कविता के साथ इस तरह के क्षेत्रों में लिखी जाती कविता को भी नहीं देखेंगे तो हम कविता या साहित्य को दो स्तरों पर पढ़ते रहेंगे. प्रतिनिधि या परिनिष्ठित काव्य और लोक काव्य साहित्य जैसा कि आजकल हो रहा है. यह भी तो देखा जाना चाहिए कि अगर अभिव्यक्ति की भाषा से परे उसके कथ्य पर ध्यान दें तो वह कहां तक अपने समय से जुड़ा है भले ही वह कुछ पीछे है,उसमें किसी भी रूप में कोई बदलाव है.

ईसुरी का समय सन् 1841 से 1909 तक है. हिंदी साहित्य की दृष्टि से यह संक्रमण काल है. आचार्य शुक्ल ने रीतिकाल का अंत 1850 ईसवी में माना है. इस समय तक रीति काल का उत्तरार्द्ध ही नहीं अंत चल रहा था. कुछ कवि रीति परंपरा में अभी भी लिख रहे थे पर प्रमुख रीति कवियों के लेखन की लगभग इति हो गई थी. पर एक विचित्र स्थिति देखी जा रही थी कि एक ओर कविता का नया स्वरूप उभर रहा था, दूसरी तरफ उसी समय सैकड़ों कवि परंपरा से जुड़े थे. वह रीतिकाल को विषय के आधार पर ही नहीं छंद और भाषा के आधार पर भी जीवित रखे थे. यह प्रवृत्ति चौथे-पांचवें दशक तक भी मिलती है. यह विचित्र बात है कि नयी प्रवृत्ति और भाषा की दृष्टि से भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी का समय उल्लेखनीय है पर भारतेंदु ने भी कवित्त लिखे हैं. भाषा में भी नएपन की सत्ता उभर रही है पर ब्रज का चलन अब भी मिलता है.

भारतेंदु युग के पहले ही सामाजिक बदलाव की भूमिका लिखी जाने लगी थी, जिसे पुनर्जागरण प्रबोधन या नवजागरण का समय कहा गया. तर्क और मानवता के इस समय में सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों का प्रतिरोध विभिन्न आंदोलनों के द्वारा होने लगा था. बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा, बेमेल विवाह के विरोध में प्रबोधन या नवजागरण चल रहा था. शिक्षा,अस्पर्श्यता, जातिवाद, स्त्री शिक्षा और स्त्री जागरण के पक्ष में नया सोच का क्षेत्र गढ़ा जा रहा था. यही परिवर्तन कामी सोच ‘भारत दुर्दशा’ और ‘अंधेर नगरी’ लिखने का साहस जगा रहा था. एक लंबी सुप्तावस्था के बाद जागकर चीजों को पहचानने में समय लगता है. साहित्य में भी यह प्रभाव धीरे-धीरे आ रहा था. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति भी विरोध की सांसें निकलने लगी थी लेकिन फिर वही बात कि अभी संक्रमण प्रारंभ ही हुआ था. परिनिष्ठित साहित्य के अलावा आंचलिक लेखन की खोज और उसका संकलन चलने लगा था. इससे बोलियों के आंचलिक साहित्य का विपुल भंडार साहित्य के रूप में पढ़े जाने का विषय बनने लगा, हालांकि अंग्रेजी के FOLK फोक  के अनुवाद के रूप में इसे ग्रामीण चेतना के साहित्य के रूप में देखा गया.

साहित्य दो स्तरों पर पढ़ा जाने लगा- परिनिष्ठित और लोक. कभी-कभी लोक की शैली और विधा को परिनिष्ठित साहित्य अपनी रुचि परिवर्तन के लिए प्रयुक्त कर लेता था पर इससे एक बड़ा संवाद होने से रह गया. दोनों स्तरों के साहित्यकार अपनी तरह रचना कर रहे थे. अगर यह कहा जाए कि स्थानगत परिवेश अपने सभी रचनाकारों को समान रूप से प्रभावित करता है तो यह आश्चर्य की बात होगी कि जब एक ही परिसर  में बैठे  मैथिलीशरण गुप्त हरिगीतिका छंद में भारत-भारती लिख रहे थे और ‘रंग में भंग’ की रचना कर रहे थे तब  झांसी में नाथूराम माहौर और जिले के अन्य भागों के बुंदेलखंड के मऊरानीपुर,  छतरपुर आदि के प्रतिभाशाली कवि फाग, ख्याल,सैर और पारंपरिक विषयों पर कवित्त शैली में लगे थे. हालांकि रीतिकाल का प्रभाव ऐसा था कि स्वयं गुप्तजी ने भी शुरू में रसिकेश नाम से कविता शैली में कविता लिखी है. साकेत और यशोधरा में कुछ कवित्त हैं भी.

मेरा मंतव्य यह नहीं है कि बोलियों में और अधिकतर पारंपरिक काव्य विषयों पर लिखने वाले कवियों को प्रसाद,पंत, निराला, महादेवी,अज्ञेय  आदि के साथ रखकर पढ़ा जाए क्योंकि उनकी काव्य चेतना वह नहीं है लेकिन उन्हें अपनी रचनाधर्मिता की गुणवत्ता के आधार पर आलोचना के व्यापक मानकों पर परखा जाए.  उन्हें केवल गांव का कवि न समझा जाए. यदि बात वैचारिकता की है तो उसमें भी भक्ति, नीति, जीवन को संचालित करने वाली प्रेरणाओं का वर्णन है. उनके भी अपने जीवन निष्कर्ष हैं. ईसुरी के लिखे को भी कविता कहिए, केवल फागें नहीं.

मेरा आशय यह नहीं है कि बोलियों में बिना किसी सार्थकता के केवल पुराने विषयों पर तुकें जोड़ने वाले लोगों को भी कवि या लोक कवि का दर्जा दिया जाये. आजकल हो यही रहा है. लोक संस्कृति, लोक साहित्य के नाम पर वैसे ही लिखा जा रहा है जैसे किसी संग्रहालय में रखी वस्तुओं को जो भी देखने आता है वह अपनी तरह एक सा वर्णन करता रहता है. क्या प्रेमचंद के हल्कू, घीसा, माधव, अलगू चौधरी, जुम्मन शेख, होरी, धनिया आदि पात्र इसी लोक के हैं. जीवन के संघर्ष, अभाव उनमें भी हैं, फसलों के नष्ट हो जाने के कारण जीवन गुजारना कठिन ईसुरी में भी है और वह केवल तटस्थ कविता वर्णन नहीं है. उस में दर्द है, मजबूरी है. यह उनकी दृष्टि का विस्तार है. नीति भारतीय समाज का एक नियामक तत्व रहा है. आध्यात्मिकता और आस्तिकता तो आंतरिक रूप से समाविष्ट है ही.

अपने समाज का परिचय देती हुई धारणाओं का वर्णन ईसुरी की कविता करती है. कोर्ट कचहरी, अहलकार, रेलगाड़ी, पिस्तौल, महुआ जैसा पेट भरने वाला वृक्ष, सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के संकेत, ये सब भी ईसुरी की कविता में आ रहे हैं तो यह तो प्रमाणित है कि ईसुरी की कविता का लोक भी परिवर्तनों को पहचान रहा था. अतः ईसुरी के काव्य को एक ओर हम लोकरंजन की दृष्टि से पढ़ें तो दूसरी ओर कविता की आलोचना अर्थात उसमें रचनाशीलता की विलक्षणता भी देखें और उन्हें कविता समय से जोड़ें.

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