– डा. अंजलि गुप्ता
बचपन से दद्दा जी की कविताएं अपने हिंदी पाठ्यक्रम में पढ़ती रही. उनकी कविताओं में एक ऐसी सहजता, एक ऐसा आकर्षण था कि वे अनायास ही मानस पटल पर स्वतः अंकित होकर कंठस्थ हो जाया करती थीं. चाहे वह ‘मां कह एक कहानी हो’, ‘चारु चंद्र की चंचल किरणें’ हो, ‘नर हो न निराश करो मन को’ या ‘सखी वे मुझसे कह कर जाते’. उनकी हर कविता से बाल मन हमेशा जुड़ता रहा. अर्थ की गहराई तक भले ही न पहुंच पाती लेकिन पढ़ने के बाद यही लगता था कि दद्दा अद्भुद कवि हैं, असाधारण व्यक्तित्व हैं और कोई दिव्य पुरुष भी. प्रारब्ध कहें या संयोग, सदा ही उनके बारे अधिक जान लेने की उत्कंठा बनी रही और समय चक्र ने जब मुझे उनकी ही पौत्र वधु बनाया तो वो छाप और गहरी और अमिट होती चली गई.
जब मैंने उनकी जन्मस्थली और कर्मस्थली की रज को अपने माथे से लगाया और उनकी विरासत को खुद हाथों से छुआ और महसूस किया, उनके बारे में और जाना तब लगा कि दद्दा मेरी कल्पनाओं से कहीं बहुत ऊंचे थे. ऐसे दिव्य पुरुष जिनका व्यक्तित्व जितना सहज, सरल और साधारण था उनकी लेखनी उतनी ही विस्तृत और असाधारण.
13-14 वर्ष की आयु रही होगी मेरी जब मैंने उनकी पंक्तियां ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ पढ़ीं, उस समय मुझे उनकी नारी वादी संकीर्ण सोच पर थोड़ा असमंजस हुआ. दद्दा जी क्या और कोई कवि भी ऐसा लिखता तो मुझे ये स्वीकार्य ना होता लेकिन जब ये समझने लायक हुई कि ये पंक्तियां उन्होंने किस संदर्भ में लिखी हैं तो मन उनके प्रति नतमस्तक हो गया. नारी संवेदनाओं और करुणा की दो पंक्तियों में इतनी सटीक व्याख्या शायद ही किसी अन्य कवि ने की हो और शायद कोई आज तक कर भी नही पाया.
दद्दा जी ने नारी को जिस पूज्य भाव से अपने साहित्य में स्थान दिया वो उस समय के रूढ़िवादी परिवारों के लिए विचित्र था लेकिन दद्दा ने इस मानसिक संकीर्णता से न केवल अपने परिवार को निकाला बल्कि समाज को उबारने का भी प्रयत्न किया. दद्दा ने अपने साहित्य में नारी को सदा उच्च स्थान देकर उनकी त्याग तपस्या और करुणा को बहुत ही संवेदनशील तरीके से उकेरा.
‘साकेत’ में उर्मिला का त्याग दिखाया है तो ‘यशोधरा’ में गौतम बुद्ध के वनगमन के बाद उसकी व्यथा. ‘विष्णु प्रिया’ में चैतन्य महाप्रभु की धर्मपत्नी विष्णु प्रिया की निष्ठा, तपस्या और त्याग को. दद्दा जी के पिता वैष्णव धर्मी थे, वे भक्ति पद गाते और लिखते थे लेकिन बालपन में ही दद्दा ने ये समझ लिया था कि इन भक्ति पदों से तत्कालीन वास्तविक उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकती थी.
दद्दा ने जब लिखना शुरू किया तब हिंदी कविता एक नया मोड़ ले रही थी. देश भी अंग्रेजों की दासता में जकड़ा हुआ था. वो दौर एक तरह का संक्रमण काल था. उस समय जब खड़ी बोली ब्रज भाषा के घटकों से निर्मित थी, दद्दा ने तब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के संरक्षण में खड़ी बोली में लिखने का बीड़ा अपने कंधों पर उठाया. हम कह सकते है कि हमारे कवियों की पीढियां उनके कंधों पर चढ़कर ही आगे बढ़ी हैं. वो खुद को जयकारा लगाने वाला बोलकर लिखते भी हैं- ‘जो पीछे आ रहे उन्हीं का मैं आगे का जय जय कार’.
सन 1912 में उनकी कालजयी रचना ‘भारत-भारती’ का प्रकाशन हुआ. भारत भारती से ब्रिटिश हुकूमत भी थर्रा गई थी, उस पर पाबंदियां लगा दी गईं, लेकिन वो रुकने की बजाए जनजागरण की हुंकार बनी.
‘मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती-
भगवान्! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती.
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते!
सीतापते! सीतापते!! गीतामते! गीतामते!!
‘हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी’ से अपने गौरवशाली अतीत ,गुलामी की जंज़ीरों में जकड़े हुए भारत और भविष्य की चिंता के बारे में चेताया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए जोश भरा. उस समय सामाजिक एवं धार्मिक पुनुरुत्थान के जो प्रयास राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती एवं महर्षि रवींद्र नाथ ठाकुर ने किए थे उन्हें सांस्कृतिक एवं साहित्यिक धरातल पर उतारने का श्रेय राष्ट्रकवि दद्दा को है. दद्दा के व्यक्तित्व का निर्माण धर्म, साहित्य, कला औऱ मानवता के पंचतत्वों से हुआ था और यही आचरण उनके काव्य और उनके स्वयं के व्यक्तित्व में झलकता रहा. सामान्य मानव को उन्होंने ईश्वर से युक्त करने की चेष्टा कर “साकेत” में आराध्यदेव राम के माध्यम से कहा भी है-
‘भव में नव वैभव प्राप्त कराने आया,
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया.
संदेश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया.’
पूजनीय महादेवी वर्मा दद्दा को भाई मानती थीं. उन्होंने लिखा है, ‘दद्दा वर्षों बाद भी ऐसे ही रहेंगे और हर भारतीय उनमें अपने आपको पाएगा. उनकी संवेदनशीलता, उनके आचरण की पवित्रता, उनकी उन्मुक्त निश्छल हंसी और उनके कोमल स्वभाव के साथ विपरीत परिस्थिति में भी स्थिरता सदा याद रहेगी’.
सन 1936 में हुए काशी अभिनंदन समारोह में दद्दा को राष्ट्रपिता महात्मागांधी ने मैथिलीमान ग्रंथ भेंट करते हुए कहा था कि राष्ट्र ने मुझे राष्ट्रपिता बनाया है और इन्हें राष्ट्रकवि. उन्होंने कहा था, ‘सच्चा कवि स्तुति-निंदा से परे होता है. वह तो, जब प्रभु स्फूर्ति देता है तभी उसकी वाणी से काव्य की अमृत धारा बहती है.’ दद्दा को किसी की निंदा सुनना तो दूर स्वयं अपनी स्तुति भी उन्हें पसंद नहीं थी.
ऐसा कोई भी धर्म या काल नहीं है जिस पर दद्दा की कलम न उठी हो. वैदिक काल में जाएं तो उन्होंने ‘नहुष’ की रचना की है, बौद्धकाल में ‘यशोधरा’, राम और रामायण की आराधना में लीन होकर राम और अन्य पात्रों को नए रूप में चित्रित किया और महाकाव्य ‘साकेत’ और ‘पंचवटी’ जैसी कालजयी रचनाएं दीं. महाभारत काल में जाकर उन्होंने ‘जयद्रथ वध’, ‘जय भारत’ जैसी कृति रच डाली. इनके अलावा हर काल पर चाहे वह ‘विष्णुप्रिया’ हो, ‘गुरुकुल’ (सिक्ख गुरुओं पर) हो, मोहम्मद साहब पर ‘काबा और कर्बला’ हो, कार्लमार्क्स की पत्नी जैनी पर कविता हो, राजपूत काल पर ‘सिद्धराज’ हो, हिन्दू, स्वदेश संगीत, वन वैभव,अंजलि और अर्ध्य के साथ-साथ भारत-भारती जैसी कालजयी हमें दीं. इसलिए वे हमारी जातीय अस्मिता के और हिंदी के संरक्षक और वर्तमान के सबसे बड़े कवि हैं. ऐसा कवि ही राष्ट्रकवि हो सकता है जिसकी लेखनी में कोई एक प्रदेश नहीं बल्कि पूरा देश बोलता हो.
दद्दा ने इतने विस्तृत लेखन के साथ ही अनुवाद कार्य भी किया और वो भी किसी एक भाषा में न होकर बंगला,संस्कृत एवं मराठी भाषा में और ये भाषाएं भी उन्होंने स्वाध्याय से ही सीखीं. आज भी चिरगांव स्थित उनके पुस्तकालय में बंगला सहित अनेक भाषाओं का विशाल संग्रह है. 1952 में जब स्वाधीन भारत के संविधान के अंतर्गत हुए प्रथम आम चुनावों के बाद पहली संसद बनी तो राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत देश भर के 12 विशिष्ट व्यक्तियों में एक नाम दद्दाजी का भी था. इसे हमारे राष्ट्र का सौभाग्य ही कहा जायेगा कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे जन- मानस के कवि का सानिध्य सन 1964 तक राज्य सभा को प्राप्त हुआ. उन्होंने राज्यसभा के सदस्य के रूप में और आजीवन हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए संघर्ष किया. 4 मई 1963 को राज भाषा विधेयक पर उनके उदगार उनकी इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करते हैं-
‘भले योजनाएं कितनी ही चलीं और चल रहीं बड़ी,
किंतु राष्ट्र भाषा तपस्विनी यहां जहां थी वहीं पड़ी.’
वो ये भी लिखते हैं-
‘सबकी भाषाएं समृद्ध हों, हिंदी है मेरी भाषा
हिंदी का उद्देश्य यही है भारत एक रहे अविभाज्य.’