रामदरश मिश्र: एक युग

-डॉ. अनिता कपूर (कैलिफोर्निया, अमेरिका)

साहित्य की कोई उम्र नहीं पर जो साहित्य एक युगपुरुष साहित्यकार के साथ चला हो, उनकी लेखनी से निकला हो, वो एक इतिहास बन जाता है. वैसे तो प्रोफेसर रामदरश मिश्र जी ने कहानी, उपन्यास व और भी विधाओं में लेखन किया पर मैंने जब उनकी कविताओं को स्कूल कालेज में पढ़ा, तभी से उनकी कविताओं से इश्क कर बैठी और स्वयं भी कविताऐं लिखने लगी. रामदरश मिश्र जी साहित्य के बरगद के पेड़ हैं जिनकी छांव तले मुझे पहली बार 2 मार्च,1993 में कविता पाठ करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था.

मैं अमेरिका में रहती हूं और इस वर्ष दिल्ली-प्रवास के दौरान ज्यों ही पता लगा कि रामदरश मिश्र जी मेरी बिल्डिंग के सामने वाली बिल्डिंग में अपने सुपुत्र के पास रह रहें हैं तो आदरणीय प्रो रामदरश मिश्र जी एवं उनकी पत्नी आदरणीय सरस्वती मिश्र जी के घर उनसे मुलाकात करने के लिए पहुंच गई. वो शाम एक ऐसी यादगार और ऐतिहासिक रही जो हमेशा मुझे प्रेरणा देती रहेगी. उन्होंने मेरी रचनाएं बहुत तन्मयता से सुनीं और आशीर्वाद भी दिया.

इस उम्र में भी इतनी बढ़िया दृष्टि, बिना चश्मे के, याददाश्त और चुस्ती ऐसी कि, स्वयं फुर्ती से उठ कर दूसरे कमरे से अपना संकलन लाए और रचनाएं सुनाईं. मेरी पुस्तकों के लिए उन्होंने शुभकामनाएं दीं. साहित्य मनीषी प्रो. रामदरश मिश्र जी के हाथों की छुअन पाकर मेरी पुस्तकें सम्मानित हो गई, जिसके साक्षी कुछ चित्र रहे.

उनकी एक कविता “दिल्ली में गांव लिए” मेरे दिल के करीब है, जिसमें वे लिखते हैं –

“‘ख” सोचता है वह तो

गांव से दूर होकर और पास हो गया है,

गांव के बिंब

और भी सघनता से आने लगे हैं,

उसकी कविताओं में

वह कभी-कभी अपने पर हंसता है,

अरे बावला!

तेरा दोस्त तो गांव को भूलकर

महानगरी फार्मूलों के सहारे

अंतरराष्ट्रीय हो गया

और तू अभी भी

दिल्ली में गांव लिये बैठा हुआ है.”

लगता है जैसे यह कविता मुझसे कुछ कहती है. जब-जब पढ़ी तो लगा कि, मैं अंतरराष्ट्रीय तो हो गई पर भारत के और पास हो गई. शताब्दी पुरुष कविवर रामदरश मिश्र का इस वर्ष शताब्दी समारोह भारत भर में साहित्यकारों ने मनाया. 100 वें वर्ष में प्रवेश कर चुके, हिंदी के एक बड़े कद के मूर्धन्य कवि रामदरश मिश्र ने सही अर्थ में कविसिद्धता हासिल कर ली है. वे बेहद सीधे-सरल और सम्माननीय कवि हैं, जो कविताएं लिखते ही नहीं कविताएं जीते भी हैं. रामदरश जी की कविताएं केवल उनकी कविताएं नहीं, बल्कि एक पूरे युग की कविताएं हैं, समय की कविताएं हैं, जिसकी उजास में साहित्य और संबंध बहुत पवित्र, बहुत अर्थवान लगने लगते हैं. लगता है कि हम साक्षात् साहित्य की विभिन्न विधाओं के सम्मुख बैठे हुए हैं. बिना किसी दिखावे के ही साहित्य उनसे झरता रहता है.

आदरणीय रामदरश मिश्र की साहित्यिक प्रतिभा बहुआयामी है. उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और निबंध जैसी प्रमुख विधाओं में तो लिखा ही है, आत्मकथा- ‘सहचर है समय’, यात्रा वृत्त तथा संस्मरण भी लिखे हैं. यात्राओं के अनुभव ‘तना हुआ इन्द्रधनुष, ‘भोर का सपना’तथा ‘पड़ोस की खुशबू’ में अभिव्यक्त हुए हैं. उन्होंने अपनी संस्मरण पुस्तक ‘स्मृतियों के छंद’में उन अनेक वरिष्ठ लेखकों, गुरुओं और मित्रों के संस्मरण दिये हैं जिनसे उन्हें अपनी जीवन-यात्रा तथा साहित्य-यात्रा में काफ़ी कुछ प्राप्त हुआ है. रामदरश मिश्र रचना- कर्म के साथ-साथ आलोचना कर्म से भी जुड़े रहे हैं. समय-यात्रा में बदलता हुआ यथार्थ उनके अनुभव और दृष्टि में समाकर उनकी रचनाओं में उतरता रहा है.

परिवर्तनशील समय का सत्य उनकी सर्जना को सतत कथ्य की नयी आभा और शिल्प की सहज नवीनता प्रदान करना रहा है. मिश्र जी के पास अनुभवों, स्मृतियों का विशाल भंडार है. प्रेमचंद जी की तरह ही वे अपनी सादगी के सौंदर्य और संवेदना की कितनी गहरी थाप दिलों पर लगाते हैं. उम्र के इस पढ़ाव पर रामदरश मिश्र जी अभी भी सक्रिय है और साहित्य साधना में रत हैं. उनके लेखन के जरिए यह तो साबित हुआ है कि अच्छा साहित्य हमेशा सम्मान पाता है.

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