भगवद्गीता से पहुंचें अपने सर्वोच्च स्तर तक

– ऋषभ मिश्रा

भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने हमें यह संदेश दिया है कि हमें किस प्रकार अपने ऊपर कार्य करना चाहिए. साथ ही मनुष्य जीवन जो कि हमें अति दुर्लभता से प्राप्त हुआ है उसे कैसे दिव्य बनाया जाए और इसे अपने सर्वोच्च स्तर तक पहुंचाया जाए. भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-

“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः” II15.7II

यानी यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है. इस नाते जो दिव्य गुण भगवान में है वो सभी गुण हमारे अंदर भी हैं. फिर ऐसा क्यों है कि कुछ लोग साधारण स्तर से ऊपर उठकर देवतुल्य स्तर तक पहुच जाते हैं जैसे कि स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, श्रील प्रभुपाद जी इत्यादि, तो वहीं अधिकांशतः लोग साधारण ही बने रह जातेहैं और कुछ लोग तो साधारण स्तर से भी नीचे स्तर तक गिर जाते हैं. इसके उत्तर में ऊपर दिए गए श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण आगे कहतें हैं-

“मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति” II15.7II

यानी प्राणी अपने मन और इन्द्रियों द्वारा भगवान की बनाई हुई प्रकृति में ही आकर्षित बना रहता है तथा कभी भी अपने सर्वोच्चतम स्तर को प्राप्त नहीं कर पाता है. यहां पर एक सहज प्रश्न उठता है कि मनुष्य का सर्वोच्चतम स्तर क्या है? इसके बारे में विद्वानों में कई मत हैं. कोई इसे स्वयं का ज्ञान होना बतलाता है, तो कोई इसे आत्मिक ज्ञान अथवा बोध प्राप्त करना कहता है. दरअसल सर्वोच्चतम स्तर वह ‘परम आनंद’ की तृप्त अवस्था है जहां पहुंचकर फिर कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा न रह जाए.

यहां प्रश्न उठता है कि उस स्तर तक हम लोग कैसे पहुंच सकेंगे? क्योंकि हमें तो संसार में ही रहना है और अपने कर्तव्यों, कर्मों का निर्वाहन करना है. तो क्या कोई ऐसी युक्ति नहीं है जिससे हम अपना कर्त्तव्य कर्म करते हुए उस स्तर को पा सकें? क्या हम लोग कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए परम आनंद की सर्वोच्चतम अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं? यदि ‘हां तो कैसे? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –

 “अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः”II6.1II

यानी मनुष्य को कर्मफल का आश्रय न लेते हुए, करने योग्य कर्तव्य कर्म को करना चाहिए, और कर्म को किये बिना (अक्रियाः) यह संभव नहीं है.

भगवान हमें स्पष्ट सन्देश देना चाहते हैं कि कर्म के परिणाम पर नहीं टिकना है क्योंकि कर्म के परिणाम की महत्वाकांक्षा  हमें कर्म करने के आनंद से वंचित कर देती है. भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म के परिणाम पर हमारा अधिकार भी नहीं है.

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” II2.47II

हमारा अधिकार तो सिर्फ कर्म को करने तक ही सीमित है, और इस बात को भूलकर यदि हम परिणामों पर टिकते हैं तो उसके दो बड़े नुकसान हमें उठाने पड़ते हैं. पहला हम अपने कर्म (कार्यों) को अच्छे से नहीं कर सकेंगे क्योंकि इस बात का भय और आशंका हमेशा हमारे दिमाग में बनी रहेगी कि इसका परिणाम हमारे मुताबिक होगा या नहीं जिससे हम अपने कर्म में अपना सौ फ़ीसदी नहीं दे पाएंगे. और दूसरा नुकसान जो हमें उठाना पड़ता है कि यदि परिणाम हमारे मुताबिक न आया तो हम निराशा, हताशा और यहां तक कि अवसाद (जिसे आजकल लोग ‘डिप्रेशन’ कहते हैं) में चले जाते हैं और खुद को शक्तिहीन महसूस करने लगते हैं.

कर्त्तव्य कर्म जिसे भगवान् ‘कार्यं कर्म’ कह रहे हैं वह है कि एक विद्यार्थी के लिए मन लगाकर अध्ययन करना, शिक्षक के लिए अपने विद्यार्थियों को उचित शिक्षा, ज्ञान और संस्कार देना, डॉक्टर के लिए अपने मरीजों की निःस्वार्थ भाव से सेवा करना, व्यवसायी के लिए लोगों को लाभ पहुंचना तथा उसका थोड़ा अंश खुद के लिए उपभोग में लेना, एक भक्त का कर्त्तव्य कर्म अपने भगवान् की सेवा सुश्रुषा करना, गृहस्थ के लिए घर का पालन- पोषण करना. इसके अतिरिक्त जिस कार्य को करने से हमारे अंदर ग्लानि, अथवा अपराधबोध उत्पन्न  हो ऐसे सभी कर्म, कर्त्तव्य कर्म अथवा ‘कार्यं कर्म’ की श्रेणी में नही आते हैं. हमें ये पता होते हुए भी कि आवश्यक कर्म क्या हैं इसके बावजूद हम इसमें खुद को अच्छी तरह से नहीं लगा पाते और खुद को सर्वोच्चतम स्तर तक पहुंचा पाते हैं. इसी के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

” बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः अनात्मानस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत” II6.6II

यानी जिस जीवात्मा द्वारा मन और  इन्द्रियों सहित यह शरीर जीता हुआ है (यानी हम इससे जो कराना चाहें ये वही करे) उस जीवात्मा का वह स्वयं ही मित्र है अन्यथा वह स्वयं का ही शत्रु है. यहां भगवान अर्जुन के माध्यम से हमसे कह रहें हैं कि यदि मन और इन्द्रियां कर्तव्य कर्म से विमुख होकर सांसारिक द्रव्यों के भोग में लगेंगी तो यही मनुष्य के पतन का कारण भी बनेंगी और मनुष्य को नीचे गिराने में भी सक्षम हैं (यानी ये शत्रुवत कार्य करेंगी). 

इससे बचने के लिए और स्वयं को सर्वोच्चतम स्तर तक पहुंचाने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण इसका मार्ग भी हमें बताते हैं-

“अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते” II6.35II

यानी इस चंचल मन को अभ्यास और वैराग्य से (यहां वैराग्य से मतलब कर्मों के परिणामों की चिंता किये बिना कर्म करना है) नियंत्रित किया जा सकता है और भगवान आगे इसी को उत्तम आनंद की प्राप्ति का रास्ता भी बताते हैं –

“प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्” II6.27II

जो कि हमारा इस जीवन में सर्वोच्चतम लक्ष्य होना चाहिए

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