शरद कोकास
हमारे आसपास लोक की अनेक कथाएं बिखरी हुई हैं. कुछ कथाओं को धार्मिक ग्रंथों ने सहेज लिया है, कुछ में मिथक शामिल हो गए हैं. ऐसी ही एक कथा है ‘हरछठ’ या ‘हलषष्ठी’ की. प्राचीन पितृसत्तात्मक समाज में पुत्र का महत्व इस तरह स्थापित किया गया कि बिना पुत्र के उद्धार नहीं है. स्त्री से कहा गया कि वह सिर्फ पुत्र को जन्म दे इसलिए पुत्र की कामना करने वाली स्त्रियां इस दिन यह व्रत रखने लगीं. मैं आपको संक्षेप में इस व्रत की कथा बताता हूं. हरछठ का यह दिन मेरी मां की स्मृतियों से जुड़ा है. यह कथा उन्होंने ही सुनाई थी.
प्राचीन काल में किसी गांव में एक ग्वालन रहती थी जो प्रतिदिन पास के गांव में दूध बेचने जाती थी. एक बार वह प्रसव पीड़ा से व्याकुल हो जाती है और गांव से बाहर एक खेत की मेड़ पर महुए के पेड़ के नीचे एक बच्चे को जन्म देती है. अब दूध तो बेचना ही था सो बच्चे को जन्म देकर वह उसे पेड़ के नीचे लिटा देती है और गांव में दूध बेचने चली जाती है.
उस दिन संयोग से हलषष्ठी होती है और बलराम यानि हलधर की पूजा की वजह से हल, बैल, गाय से जुड़ा हर काम वर्जित होता है. दूध भी केवल भैंस का ही उपयोग में लाया जा सकता है लेकिन वह ग्वालन गाय और भैंस का दूध मिला कर बेच देती है.
इधर खेत में हल चलाते हुए किसान के बैल अचानक भड़क जाते हैं और हल समेत वे बच्चे की दिशा में दौड़ जाते हैं. वह हल बच्चे के पेट में घुस जाता है और बच्चा मर जाता है. किसान से यह करुण दृश्य देखा नहीं जाता और वह किसी झाड़ी के कांटे से उस बच्चे का पेट सी देता है.
जब वह ग्वालन लौट कर आती है और अपने बच्चे की यह दशा देखती है तो उसे दुःख के साथ बहुत पश्चाताप भी होता है. वह गांव में जाकर बताती है कि उससे गलती हो गई और उसने हरछठ के दिन भैंस के दूध में बचा हुआ गाय का दूध मिला कर बेच दिया. गांव के लोग उसे क्षमा कर देते हैं. वह जब दोबारा लौट कर आती है तो देखती है कि उसका बच्चा जीवित है.
अब आपको मैं अपने बचपन में ले चलता हूं जहां मेरी मां हरछठ का व्रत करती थी. मिट्टी का घर था. दीवार पर वह भैंस के गोबर से लीपकर चूने, गेरू खड़िया और चावल के आटे से हरछठ माता की तस्वीर बनाती. बाबूजी भी उसमें हरछठ की कथा से जुड़े चित्र बनाते. जैसे इस कहानी से संबंधित चित्र भी जिसमें गर्भवती ग्वालन होती थी जो सिर पर दूध का मटका लिए होती थी, एक बच्चा होता था, बैल, हल, महुआ का पेड़ गांव वाले, भैंसों का झुंड और भी ऐसी बहुत सारी चीजें.
मुझे बचपन से सवाल करने में बहुत मज़ा आता था मैं मां से पूछता, “मां अगर उस ग्वालन को बच्चा होने वाला था फिर वह दूध बेचने क्यों गई?”
मां कहती, “बेटा वह बहुत गरीब थी, ग़रीब स्त्री प्रसव का अवकाश कैसे ले सकती है? गरीब अगर घर बैठेंगे तो क्या कमाएंगे और क्या खायेंगे?”
मैं फिर पूछता, “लेकिन उसने भैंस के साथ गाय का दूध मिलाया तो उससे पाप कैसे हुआ? वो तो अपना दूधवाला भी मिलाता है, बल्कि वो तो पानी भी मिलाता है?”
मां कहती, “दरअसल हलषष्ठी या हरछठ कृष्ण के भाई बलराम का जन्मदिन है और बलराम का अस्त्र हल है सो इस दिन हल नहीं चलाया जाता और न बैलों का उपयोग किया जाता है गाय का दूध भी इसीलिए वर्जित है क्योंकि बैल गोवंश से हैं.”
अब उस किसान ने वर्जनाएं तोड़कर इस दिन भी हल चलाया और ग्वालन ने भी मिला हुआ दूध बेचा सो उसकी सजा उसे मिली.
मैं मां से बहस करता, “लेकिन मां सजा तो ग्वालन और उसके बेटे को मिली? और किसान को तो मिली ही नहीं?”
मां कहती, “लेकिन फिर प्रायश्चित के बाद बेटा जीवित भी तो हो गया ना. इसलिए मां यह व्रत अपने बेटों के लिए करती है कि उसके बेटे खूब जियें. कथा प्रसंगों के अनुसार वह महुए के पत्ते पर भैंस के दूध से बना दही और पसई के चावल यानी बिना जोती जगह जैसे खेत की मेड पर उगे चावल खाती है. समझे?”
मैं फिर कहता, “लेकिन मां, प्रायश्चित स्त्री को ही क्यों करना पड़ता है? उस किसान को क्यों नही करना पड़ा? पाप तो उसने भी किया था.” मां मुस्कुराती और फिर मेरी बकबक बंद करने के लिए मुझे एक दोना भरकर लाई, गुड़, महुए का प्रसाद दे देती.
हर साल चलने वाली मेरी यह बहस तब तक चलती रही जब तक मेरी छोटी बहन सीमा कुछ समझदार नहीं हो गई. एक साल आखिर हरछठ पर उसने विद्रोह कर ही दिया, “मां, तुम पूजा में सिर्फ शरद भैया और बबलू के नाम के लाई के दोने क्यों भरती हो? बेटे हैं इसलिए? कोई नहीं. मैं बेटी हूं तो क्या हुआ, बेटे से कम हूं क्या? अब से मेरे नाम के भी दोने भरे जायेंगे. इस तरह उस साल से मां ने सीमा के नाम के भी छह प्रसाद के दोने भरने शुरू किये.
आज मां नहीं है, उनके साथ ही यह पर्व मनाने का सिलसिला भी समाप्त हो गया. बचपन के वे छोटे-छोटे सुख, हंसी-मज़ाक, पर्व का उल्लास भी समाप्त हो गया. सन 2001 में 8 अगस्त को हरछठ से ठीक दो दिन पहले मां यह दुनिया छोड़कर चली गई. उसने अस्पताल में अपनी उसी बेटी की बांहों में अंतिम सांस ली जिसके नाम के दोने वह नहीं भरती थी. दोनों बेटे उसके अंतिम समय उससे बहुत दूर थे.