ध्रुव गुप्त
होली के उत्सव की शुरुआत के संबंध में पुराणों ने कई कथाएं गढ़ी हैं. उनमें सबसे प्रचलित कथा हिरण्यकश्यप, प्रहलाद और होलिका की है. राजा हिरण्यकश्यप स्वयं को ही भगवान् मानते थे लेकिन का पुत्र प्रहलाद विष्णु भक्त था. उन्होंने प्रहलाद को बहुत बार समझाया कि वह विष्णु की पूजा करना छोड़ दे लेकिन प्रहलाद नहीं माना. उनकी समझाइशें नाकाम रहीं. फिर उन्होंने एक दिन प्रहलाद को मारने के लिए अपनी बहन होलिका की मदद ली. होलिका को भगवान शंकर से वरदान में एक ऐसी चादर मिली थी जिसे ओढ़ने पर अग्नि उसे जला नहीं सकती थी. होलिका उस चादर को ओढ़कर और प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई लेकिन वह चादर उड़कर प्रहलाद के ऊपर आ गई और प्रहलाद की जगह होलिका ही जल गई.
होली को राधा-कृष्ण के प्रेम और कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध से भी जोड़ा गया है. एक अन्य कथा के अनुसार इस उत्सव की शुरुआत राजा रघु के समय बच्चों को डराने वाली ढोंढा नाम की राक्षसी के अंत से हुआ था. ये तमाम कथाएं किंवदंतियां ही लगती हैं.
होली की उत्पत्ति का सबसे तार्किक विवरण वेदों में मिलता है. वेदों में इस दिन को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा गया है. यह वह समय होता है जब खेतों से पका हुआ अनाज घर लाया जाता था. पवित्र अग्नि में जौ, गेहूं की बालियां और चने को भूनकर उन्हें प्रसाद के रूप में बांटा जाता था. एक तरह से यह दिन आहार के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का उत्सव है. होली के आरंभ की एक और तार्किक व्याख्या अथर्ववेद में मौजूद है. इसके अनुसार किसी संवत्सर अर्थात नव वर्ष का आरंभ अग्नि से होता है. साल के अंत में फागुन आते-आते यह अग्नि मंद पड़ जाती है, इसीलिए नए साल के आरंभ के पहले उसे फिर से प्रज्वलित करना होता है. यह अग्नि फागुन मास की पूर्णिमा को जलाई जाती है जिसे संवत दहन कहते हैं. उसके बाद चैत्र से गर्मी की शुरुआत होती है. आज भी होलिका दहन के मौके पर लोग संवत ही जलाते हैं. इस अग्नि उत्सव के अगले दिन रंगों से खेलने की परंपरा भी प्राचीन काल में ही शुरू हो गई थी.
“पहचान” के सभी पाठकों को होली की शुभकामनाएं !
- \ध्रुव गुप्त