पवन चौहान
उसकी धुन सबको मंत्रमुग्ध कर देती है. उससे झरने वाली स्वर लहरियां एक अजीब-सा सम्मोहन उत्पन्न करती हैं. उससे निकलने वाली धुन शब्द बनकर वातावरण को अपने मोहपाश में बांध देती है. आप समझ ही गए होगें हम किसकी बात कर रहे हैं? जी हां, हम बात कर रहे हैं रावणहत्था की. रावणहत्था एक ऐसा वाद्ययंत्र है जो राजस्थान के लोकगीतों में मिठास भर देता है.
रावणहत्था सारंगी का ही एक रुप है. यह राजस्थान का एक विशेष वाद्ययंत्र है जो राजस्थान के लोकसंगीत की पहचान करवाता है और यहां के लोकगीतों में जान फूंकता है. इसके बगैर राजस्थान के लोकगीत जैसे अपाहिज से जान पड़ेगें. शादी हो या जन्मदिन या अन्य कोई त्यौहार यह हर मौके पर खूब बजाया जाता है.
रावणहत्था की लम्बाई लगभग दो फुट होती है. इसके एक तरफ नारियल का खोल लगा होता है जिसके ऊपर खाल या प्लास्टिक की एक पतली परत चढ़ी रहती है. इस नारियल के खोल के साथ एक बांस का डंडा लगाया गया होता है. इसी बांस की डंडी पर लगभग दो-अढ़ाई ईंच लंबाई के हुक जैसे लगाए गए होते हैं जिन्हें ‘मोरनी’ कहा जाता है. इन मोरनियों पर तारें कसी जाती हैं जो सुरों को अंजाम देती हैं. इन मोरनियों को ये लोग स्वंय तैयार करते हैं. मोरनियां सिल्वर या लकड़ी की बनाई गई होती हैं. इनको सुंदरता प्रदान करने के लिए कारीगर इन पर अपने हिसाब से डिजाइन उकेरता है.
इन मोरनियों को बांस पर इस हिसाब से लगाया जाता है ताकि कोई भी तार एक- दूसरे को छू न पाए. स्वरों का ध्यान रखते हुए ही इनके उचित स्थान का चयन भी किया जाता है. यह प्रक्रिया इसमें सबसे ज्यादा पेचीदा और समय की काफी खपत करने वाली है. मोरनियों के साथ ही होते हैं ‘मोरने’ जो लकड़ी के होते हैं. ये भी तारों की कसावट को अंजाम देते हैं. दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि मोरनी लंबरूप और मोरना क्षैतिज रूप में लगाया जाता है. इनके साथ लगी तारों की संख्या को भी कलाकार अपने हिसाब से तय करता है. ये सोलह से लेकर उन्नीस तक रहती है.
रावणहत्था से स्वर निकालने का कार्य करती है ‘गज’ जिसे ‘दनी’कहकर भी पुकारा जाता है. यह एक छोटे से धनुष के आकार की होती है. जिस पर चढ़ी धागे की प्रत्यंचा को इन तारों पर रगड़कर स्वर को जीवंत रुप दिया जाता है. कलाकार भक्त के अनुसार ‘रावणहत्था हम स्वंय घर पर ही तैयार करते हैं. इसको तैयार करने में लगभग बीस से तीस दिन तक का समय लग जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में कलाकार के हुनर का भी परीक्षण होता है.’
रावणहत्था के कलाकार लोगों का खूब मनोरंजन करने के साथ-साथ अपनी कमाई को भी अंजाम दे रहे हैं. ‘देरा लदीया जाओए दीवाना/ थारोड़ी मारवाड़ में/ एक लड़ी मत छोड़े दीवाना/ परदेसा मन जाओए दीवाना’और ‘बना रे बागा में जो लगा ले/ ताहरे बने ने झूला दीजो/ बना छैल भंवर-सा’ तथा ‘केसरिया बालम पधारो म्हारे देश’ जैसे ठेठ राजस्थानी लोकगीतों के साथ-साथ फिल्मी गीतों को जब ये कलाकार रावणहत्था पर बजाते हैं तो ऐसा समा बांधते हैं कि सुनने वाला सम्मोहित-सा हो जाता है.
ये कलाकार आपको शहर, गांव, बस-स्टैंड, रेलवे-स्टेशन या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर अपनी कला का जादू बिखेरते अक्सर नजर आ जाएंगे. यह इनकी रुटीन में शामिल है. राजस्थान के हनुमानगढ़ जिला के सोनू के अनुसार, ‘मैंने बचपन से ही रावणहत्था अपने पिता जी से सीखना शुरु कर दिया था. इसकी धुन मुझे आकर्षित करती थी. मैंने शौक- शौक में फिर इसे बजाना भी सीख लिया. इसे हाथ में लेते ही लगता है कि यह बहुत ही आसान है लेकिन यह एक कठिन तपस्या है जिसका फल काफी रियाज़ के बाद मिलता है. मुझे इसे बजाने में बहुत आनंद मिलता है. यह हमारी लोककला का एक जीवंत उदाहरण है. परंतु मुझे इस बात का बड़ा दुख होता है कि आज की पीढ़ी इसे सीखने से परहेज कर रही है. वे इसे हाथ में पकड़ने पर ही शर्म महसूस करते हैं. हमारे इलाके की बात करें तो रावणहत्था को बजाने वाले अब बहुत कम लोग रह गए हैं. रावणहत्था हमारी पहचान है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखें तो इस कला का वजूद खतरे में पड़ गया है.’
सोनू की पत्नी सुमन पति के साथ इस कला का हिस्सा बन जाती है. सोनू रावणहत्था बजाता है और सुमन इन सुरों को अपनी आवाज में पिरोती चली जाती है. सुमन बताती है, ‘रावणहत्था हमारे लोकगीतों में जान डालता है. यह हमारा खानदानी पेशा है जो हमें मान-सम्मान के साथ-साथ दो जून की रोटी मुहैया करवाता है.’
यह बात सत्य है कि रावणहत्था को सीखने वालों की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में काफी गिरावट आई है. इससे रावणहत्था के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं. यदि यही सब चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब रावणहत्था अपनी अंतिम सांस ले लेगा. इस वाद्ययंत्र के मिटते ही राजस्थान के लोकसंगीत के इतिहास से एक अमूल्य पन्ना गायब हो जाएगा और ये इस लोकसंगीत को अपाहिज बनाने के साथ-साथ इस समाज की बेशकीमती यादों को अपनी कब्र में समाहित कर लेगा. इस सब के लिए हम स्वंय ही जिम्मेवार होंगे. तो फिर देर किस बात की है, आइए दृढ़संकल्प कर लें कि हम रावणहत्था के वजूद को मिटने नहीं देंगें ताकि इसकी मीठी, प्यारी- सी धुन यूं ही हमारे कानों में गूंजती रहे और हमें राजस्थान के लोकसंगीत से आत्मसात करवाती रहे.