समकालीन साहित्य का अध्ययन करने के पश्चात समझ आता है कि स्त्री विमर्श,दलित विमर्श,आदिवासी विमर्श,मुस्लिम विमर्श,अल्पसंख्यक विमर्श,वृद्ध विमर्श,किन्नर विमर्श आदि पर गंभीर चर्चा हुई है. वर्तमान समाज में किन्नर को हिजड़ा, खुसरो,अली,छक्का आदि नाम से पुकारा या पहचाना जाता है. किन्नर के चार प्रकार हैं- बचुरा, नीलिमा, मनसा,हंसा. बचुरा वर्ग के किन्नर वास्तविक हिजड़े होते हैं. वे जन्म से न स्त्री होते हैं ना पुरुष. नीलिमा वर्ग में वे हिजड़े आते हैं, जो किसी परिस्थितिवश या कारणवश स्वयं हिजड़े बन जाते हैं. मनसा वर्ग में वे हिजड़े आते हैं जो मानसिक तौर पर स्वयं को हिजड़ा समझने लगते हैं. हंसा वर्ग में वे हिजड़े आते हैं, जो किसी यौन अक्षमता की वजह से स्वयं को हिजड़ा समझने लगते हैं. किन्नर समाज विश्व के हर क्षेत्र में समाहित हैं. वे मनुष्य ही हैं, सिर्फ़ उनमें प्रजनन क्षमता न होने से समाज हीन नजर से देखता है. हिंदी साहित्य में शुरुआती दौर में पाण्डेय बेचन शर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, शिवप्रसाद सिंह, वृंदावन लाल वर्मा आदि ने किन्नर समाज की समस्या पर लिखा किंतु समस्या का हल वर्तमान में भी नहीं. हिंदी साहित्य में किन्नर समाज की समस्या पर अनेक उपन्यास लिखे गए और वर्तमान में भी लिखे जा रहे हैं. प्रमुख उपन्यासों में ‘यमदीप’-नीरजा माधव, ‘मैं भी औरत हूं’-अनुसुइया त्यागी, ‘किन्नर कथा, ‘मैं पायल’-महेंद्र भीष्म, ‘तीसरी ताली’-प्रदीप सौरभ, ‘गुलाम मंडी’-निर्मल भुराड़िया, ‘प्रतिसंसार’ – मनोज रूपड़ा, ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ -चित्रा मुद्दगल आदि. उपरोक्त उपन्यासों का अध्ययन करने के पश्चात किन्नर समाज की त्रासदी, संघर्ष समझ