पहली मोहब्बत
कहते हैं पहली मोहब्बत बड़ी पाकीज़ा होती है, बड़ी मासूम होती है, और वो मोहब्बत होती है मां की मोहब्बत, मां की दुआएं अर्श तक जाती हैं, उसके पांव में जन्नत है, उसकी गोदी में अजीब सा सुक़ून है. ज़ुबान से पहला लफ्ज़ भी मां ही निकलता है. फिर उसी पहली मोहब्बत को, उसी जन्नत को,उसी सुक़ून को, उंगली पकड़ कर क्यों छोड़ आते हो वृद्धाश्रम, क्यों दुनियां के मेले में खोकर भूल जाते हो अपनी पहली मोहब्बत, क्यों वो अमृत सा दूध, क्यों वो बिस्तर की नमी, क्यों वो काजल का टीका, क्यों रातों के रतजगे मां के भूल जाते हो? जिसने छोड़ दी सारी दुनियां, सारी खुशियां तुम्हारी मोहब्बत में, उस पहली मोहब्बत को क्यों बेगानों में छोड़ आते हो? क्यों उन आंखों की वीरानी तुम समझ नहीं पाते और उसकी मोहब्बत के एवज़ में चंद काग़ज़ के टुकड़े फेंक आते हो. अरे, तुम तो क़ाबिल ही नहीं हो उस मोहब्बत के, वो गीता के श्लोक सी मोहब्बत, वो क़ुरआन की आयत सी मोहब्बत, उसे तुम ग़ैरों के हाथों में क्यों कर सौंप आते हो? सुना है बड़ी मन्नत से मांगती है रब से मां दामन फैलाकर बेटों को, ख़ुदाया! अगर यही है मोहब्बत पहली तो दुआ करती हूं, हर मां बांझ हो जाये जवानी कर दी ख़र्च, बच्चों की परवरिश में क्या इसलिए कि बुढापा वृद्धाश्रम में नीलाम हो जाये?