Story

कमरे में चांद

रात थी.गहरी सी. नींद बस पलकों पर ही थी. सांसें अपनी रिदम से चल रही थीं के अचानक ज़ोर की आवाज़ आई- भाड़- भाड़, जैसे किसी ने घबरा के दरवाज़ा पीटा हो. नींद ने चौंक के जल्दी से अपना लिहाफ ओढ़ा और बिना कुछ कहे अंधेरों में गायब हो गई. आवाज़ें और तेज़ और तेज़ हो गई थीं जैसे बिजली गिरी हो कहीं. अचानक पानी का रोशन सा रेला मेरे कमरे में दाखिल  हो गया. मैंने दरवाजा खोला, देखा देहलीज पर भीगा हुआ सा चांद खड़ा ठिठुर रहा था. पहचानती थी मैं उसे. कई बार अपनी खिड़की से उसे देखा था. शांत, चुप सा, यहां- वहां भटकता सा. मैंने एहतियात से आस-पास देखा और धीरे से उसे कहा-“आ जाओ”. कितना ख़ूबसूरत था चांद! कितना!! “ऐसी तेज बारिशों में कहां भटकते रहते हो?” मैंने उसे तौलिया देते हुए कहा, “कम से कम एक बरसाती ही ले लिया करो. और कहां थे इतने दिन से?”. वो मुस्कुरा दिया. “कहीं नहीं, एक पेड़ पर एक घोंसले में रह रहा था.” अबके मुस्कुराने की बारी मेरी थी. “अच्छा चाय पियोगे? रुको बनाती हूं”. वो कुछ कहने को हुआ फिर चुप हो गया. यहां-वहां देखते हुए बोला,”तो यहां रहती हो तुम?” अचानक मुझे अपने अस्त-व्यस्त से कमरे का ख्याल आया. “हां.छोटा है ना बहुत”. मैंने उसे चाय देते हुए कहा,”पर काम चल जाता है”. “हुं”, उसने हुंकारा सा भरा. “तुम्हारा अच्छा है ना, कोई लिमिट ही नहीं, जहां देखो वहां तक आसमान ही आसमान. ना छत ना दीवारें. कोई रोकने वाला नहीं, टोकने वाला नहीं. कभी किसी पेड़ पर अटक गए, कभी बादलों पर सवार हो गए. जब चाहे, जहां चाहे, भटकते रहो.” “हां. पर कभी-कभी छतों की, दीवारों की बहुत ज़रूरत होती है. कई बार लगता है दीवारों से पीठ टिकाए देर तक खड़ा रहूं. रुक जाऊं. आंखें उठाऊं तो यकीन हो के मेरे सर पर भी कोई छत है. कोई तो खिड़की हो, कोई तो दरवाजा हो जिसे इस दुनिया के मुंह पर बंद कर सकूं”, कहते-कहते उसकी आवाज भर्रा सी  गई. मैंने जरा हिचकते हुए उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया. उसने अपने ठंडे गाल मेरी उंगलियों से सटा दिए. मैं थोड़ी सिहर सी उठी. अपना हाथ खींचते हुए बोली,”तो ठीक है ना, चलो अपना-अपना कमरा बदल लेते हैं. रह लो दीवारों में.” वो हंसा, “मैं तो रह लूंगा तुम रह पाओगी? अनंतता भी किसी श्राप से कम नहीं.” “अरे! ऐसा क्या हो गया डायलॉग पे डायलॉग मारे जा रहे हो. ऐसे तीखे-तीखे. झगड़ा-वगड़ा हो गया क्या किसी से?” वो फिर मुस्कुरा दिया. हाय कितनी गहरी थी उसकी आंखें! “अरे ये क्या?” “क्या?” “ये निशान कैसा?” “अरे, क क  कुछ नहीं. कुछ नहीं,” वो खुद को छुडाते हुए बोला. “अरे कुछ कैसे नहीं? देखने दो. मैंने उसका चेहरा हाथ में ले लिया. आंखों के जरा सा नीचे ये…येएए….क्या हुआ हां?  किसी ने मारा क्या तुम्हें? हाये, मैंने अभी तक कैसे नहीं देखा?” वो मेरे सीने से लग गया. “क्या हुआ हां… क्या हुआ?” बिजली ने मेरे पेड़ को जला दिया. मेरी चिड़िया, उसके बच्चे, सब सब  जल गए. “हे ईश्वर! हे ईश्वर!” “चुप… चुप.” बहुत देर तक वो सिसकता रहा. मैं उसे  सहलाती रही. चांद. ऐ चांद?” “उउन्”… कुछ सूझ ही नहीं रहा था क्या कहूं. ऐसा क्या दिलासा दूं. ऐसा क्या कहूं. ऐसा क्या करुं? “अरे सुनो चाय और पियोगे?” “ना” “अरे थोड़ी सी, जरा सी,” मैं उठने को हुई. उसने मेरा हाथ पकड़ के रोक लिया. “सुनो” “हां” “कभी-कभी यहां आ सकता हूं?” उसने अपनी बड़ी-बड़ी भोली सी आंखों से मुझे देखते हुए कहा. “हां ना. क्यों नहीं? तुम्हारे आने से तो ये कमरा आसमान से भी सुंदर हो जाता है यार. बस सूरज को मत बताना. जानते हो ना जलखुकड़ा है.” वो हंस दिया. “चलो एक-एक चाय और” “नहीं, रहने दो, सुबह हो जाएगी.” “अरे ना, ना. एक-एक बस. एक-एक और.” पर वो नहीं माना, जैसे ही जाने को हुआ. देखा नींद कान लगाए वहीं दरवाजे पर खड़ी थी. वो मुस्कुरा रही है.चांद उसे देख नज़र नीची किये तेज-तेज कदमों से चला गया. “हम्म, मैं आ जाऊं? नींद ने पूछा. मैंने गुस्से से उसे  देखा. नहीं अब आ के क्या करोगी? सुबह हो गई है. “अरे! सुबह के ख्वाब सच्चे होते हैं मेरी जान. कहो तो चांद का सपना ले आऊं. उसने जोर-जोर से हंसते हुए कहा. “नहीं चाहिए. निकलो, निकलो यहां से,” मैंने उसे ढकेलते हुए दरवाजा बंद कर दिया. […]

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मुट्ठी भर प्यार

 “धरा मम्मी गुजर गयीं. पापा के कहने पर मैंने तुम्हें सूचना दे दी है. मैं निकल रही हूं अभी”, सुबकते हुए बुआजी ने बताया. मैं उन्हें एक शब्द भी नहीं बोल पाई. बुआजी ने सूचना देकर फोन फौरन काट दिया. इतना पूछने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि ऐसा कब और कैसे हुआ? बुआजी को

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दलाल

विश्वजीत: “कल्याण पढ़ाई महत्वपूर्ण है ज़िंदगी में.” कल्याण: “हां. सही है विश्वजीत तुम्हारा कहना लेकिन परिस्थिति पढ़ाई करने जैसी नहीं है. थोड़ी पढ़ाई हुई है अच्छा- बुरा समझने जितनी, व्यवसाय करने जितनी.” विश्वजीत: “स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद तू स्पर्धा परीक्षा की तैयारी करके अच्छा पद हासिल कर सकता है.” कल्याण: “विश्वजीत मुझे व्यवसाय में रुचि

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या तो खेलूंगा मैं ही या खेल नहीं होने दूंगा 

 किसी समय की बात है. भारत वर्ष में अत्यंत ही सुरम्य, रमणीक और हरीतिमा से आच्छादित एक विशालकाय कानन था. झरनों, नदियों, पर्वतों, घाटियों की श्रृंखला उस कानन को प्रवास के लिए एक आदर्श स्थल का रूप देती थी. उस कानन में अनेक प्रकार के जीव जंतु प्रेम भाव से रहते थे.  प्रेमभाव से इसलिए कि वहां प्रकृति प्रदत्त

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“बातों वाली गली”

सामने वाले घर में सामान उतरता देख अचानक ही सोया पड़ा मोहल्ला जाग सा गया. चहल- पहल बढ़ गई. हर घर के दरवाज़े से एक अदद सिर थोड़ी- थोड़ी देर में बाहर निकलता, सामने वाले घर की टोह लेता और फिर अन्दर हो जाता. दोपहर तक सारा सामान उतर चुका था और सामने वाले घर के

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