ग़ज़ल

सतपाल ख़याल

1.

मैं न जीता हूं, तू न हारी है

ज़िंदगी तुझसे जंग ज़ारी है.

कितनी हल्की हैं मेरी सब ग़जलें

एक रोटी भी इनसे भारी है.

फ़र्ज़ पूरा किया चराग़ों ने

आगे सूरज की ज़िम्मेदारी है.

मीर पत्थर जो रोज़गार का है

इश्क़ से भी ज़्यादा भारी है.

इसको भी फ़न समझ रहे हैं लोग

नंगे होना भी अदाकारी है?

मुख़्तसर है सफ़र मुहब्बत का

पास बैठी हुई सवारी है.

 हां मेरी याद उस दुपट्टे पर 

 इक चमकती हुई किनारी है.

एक मिट्टी के रंग कितने हैं

कौन माली है किसकी क्यारी है.

वक़्त क्या है “ख़याल” सुन हमसे

रात –दिन चलने वाली आरी है.

2.  

जो लेकर लौ चले थे वो कहां हैं?

दियों के क़ाफ़िले थे वो कहां हैं?

उजालों की हिफ़ाज़त करने वालो

दिए जो जल रहे थे वो कहां हैं?

वो किन झीलों पे बरसे हैं बताओ

जो कल बादल उड़े थे वो कहां हैं?

 हमारी प्यास ने पत्थर निचोड़े

कुंए जो नक़्शे पे थे वो कहां हैं?

ए पानी बेचने वालो बताओ

जो राहों में घड़े थे वो कहां हैं?

लहू के लाल धब्बे सबने देखे

जो पत्थर बांटते थे वो कहां हैं?

हवा में तैरती हिंसा की ख़बरें

कबूतर जो उड़े थे वो कहां हैं?

“ख़याल” अब खाइयां है नफ़रतों की

कि पुल जो जोड़ते थे वो कहां है?

3.

यहां मुश्किल है अब मेरा गुज़ारा, अब मैं चलता हूं

समझ में आ गया है खेल सारा, अब मैं चलता हूं.

ख़यालों के किसी जंगल में यादों का कोई लश्कर

किसी इक याद ने मुझको पुकारा, अब मैं चलता हूं.

ये धारे, कश्तियां, मांझी, समन्दर याद रखूंगा

नज़र आने लगा मुझको किनारा, अब मैं चलता हूं.

बदन को ओढ़कर जीता रहा बरसों बरस तक मैं

ये चोला था पुराना सो उतारा, अब मैं चलता हूं.

मिला तू सबसे हंसके अपनी महफ़िल में, सिवा मेरे

समझ में आ गया तेरा इशारा, अब मैं चलता हूं.

कहां से हूं, कहां का हूं, कहां पे आके बैठा हूं

गिरा है फ़र्श पर अर्शों का तारा, अब मैं चलता हूं.  

ख़याल” अब ऊब सी है दिल में, घर में और दफ़्तर में

बहुत अरसा घुटन सी में गुज़ारा, अब मैं चलता हूं.

4.

आंख में तैर गये बीते ज़माने कितने

याद आये हैं मुझे यार पुराने कितने.

चंद दानों के लिए क़ैद हुई है चिड़िया

ए शिकारी ये तेरे जाल पुराने कितने.

ढल गया दर्द मेरा शेरों के सांचों में तो फिर

खिल गये फूल दरारों में न जाने कितने.        

एक है फूल, कई ख़ार, हवाएं कितनीं  

इक मुहब्बत है मगर इसके फ़साने कितने.

ग़म के गुंबद पे, कलस चमके हैं यादों के कई

दफ़्न हैं देख मेरे दिल में ख़ज़ाने कितने.

बात छिड़ती है मुहब्बत की तो उठ जाते हो

याद आते हैं मेरी जान बहाने कितने.

वो मुहल्ला, वो गली, और गली का वो मकां

याद आते हैं मुझे बीते ज़माने कितने.

सच को सूली पे चढा देते हैं दुनिया वाले

इस ज़माने के हैं दस्तूर पुराने कितने.

बात की जब भी उजालों की,चरागों की “ख़याल”

आ गये लोग मेरे घर को जलाने कितने.

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